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Dawai

Published by MISHRA BRAJENDRA NATH in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag factory | medicine | old man | Problem | Rain

An old man in a stormy, rainy night is searching for a medicine to be administered to his seriously ill granddaughter. The girl has already lost his father in an accident and mother due to shock of that accident. The old man could purchase that medicine with the help of a Good Samaritan. As ill luck would have it the poor old man himself met an accident. Has the girl been administered the medicine, does she survive? Please go through the story to find the answer…

medicine-bottle

Hindi Moral Story – Dawai
Photo credit: mensatic from morguefile.com

हालाँकि वारीश की रफ़्तार थोड़ी कम हो गयी थी, इसीलिये मैंने बूढ़े बाबा को main रोड से अपनी कार मोड़ने के पहले उतार कर कहा था, “बाबा ठीक से घर तो पहुँच जाओगे,…” ,

‘हाँ बाबू, तूने इस वारीश में इतना कर दिया यही काफी है। अब ये दवाई मेरी पोती की जान जरूर बचा लेगी ।”

मैं घर पहुंच कर भी थोड़ा अन्यमन्यस्क सा था। पत्नी ने देखते ही समझ लिया था कि जरूर कोई गंभीर समस्या से परेशान हो रहे हैं। पतियों के चेहरे के भाव पढ़कर ही पत्नियां अक्सर उनकी परेशानियों से खुद को परेशान करने लगती हैं। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है।

“क्या हुआ है? आप बताएँगे नहीं तो बात साफ कैसे होगी? मेरे साथ समस्या को साझा करते ही उसका हल निकल आएगा …. आप बताएं तो सही। वगैरह वगैरह….”पत्नी ने एक साथ कई सवाल, उसके संभावित जवाब सहित कह दिए और मेरे जवाब की प्रतीक्षा करने लगी।

कभी कभी सचमुच ऐसा होता भी था की समस्या को उन्हें बताते, समझाते उसका कोई न कोई हल भी निकल आता था। लेकिन मैं बताने से परहेज इसलिए करता था कि मैं अपनी परेशानियों से उन्हें क्यों परेशान करू। मेरी परेशानी मेरी निजी सम्पति है जो मैं अपने पास ही रखना चाहता हूँ।

इस परेशानी की भी ज्यादा बात नहीं करते हुए मैंने कहा, “अरे भई, कुछ नहीं, वारिश में आया हूँ, गरमा-गरम चाय का तलबगार हूँ, और आप परेशानियों की बात बीच में घुसेड़ रहे है।” मैंने हंसकर कहा तो पत्नी मान गयी और चाय की तैयारी में लग गयी. लेकिन मैं बड़ी सफाई से अपनी परेशानी को छुपाने में सफल रहा था।

मैंने जैसे-तैसे चाय ख़त्म की. कार बाहर ही खड़ी थी। कार को मोड़कर मैं फिर मेन रोड के तरफ चल पड़ा जहाँ पर आते समय मैंने बूढ़े बाबा को छोड़ा था ।

ड्राइव करते हुए आज की सारी घटनाएँ घूम रही थी। मैं आज कारखाने से थोड़ा विलम्ब से निकला था। पिछले दो दिनों की लगातार वारिश के बाद आज दिन भर वारिश नहीं हुयी थी। लोगों ने राहत महसूस की थी। यह चारो तरफ पहाड़ियों से घिरा एक छोटा सा शहर दो नदियों, सुरेखा और चिकाई का बीच बसा था। सुरेखा और चिकाई नदियां शहर के दो तरफ से बहते हुए दक्षिणी छोर पर मिल जाती थी। उसके आगे सिर्फ सुरेखा नदी बनकर बहती जाती थी। खनिज सम्पदा के भंडार के कारण कारखाना भी यहीं स्थापित हो गया था। कारखाने की दीवारों से करीब दो किलोमीटर दूर कर्मचारियों और अधिकारीयों के पक्के घर बनाये हुए थे। उसी से थोड़ी दूर पर बस्ती थी ग्रामीणो की, जो शहर में मज़दूर और कारखाने में ठेका मज़दूर के सप्लाई पॉइंट के रूप में काम करते थे। बस्तियों की ब्यवस्था शहरों जैसी तो नहीं थी, लेकिन गलियां सीमेंट की बन गयी थी जब कि मकान अधिकांश मिट्टी और खपड़ैल के ही बने थे। हाँ, बस्तियों में रहने वाले लोगो के लिए काम की कमी नहीं रहती थी , क्योंकि शहर भी बड़ा हो रहा था और कारखाना भी।

मुझे कारखाने से निकलते – निकलते रात के नौ बज गए थे। ऐसा किसी विशेष कारण से होता है जब या तो कोई ब्रेकडाउन हो या बॉस कोई मीटिंग सात बजे बुलाये और वह रात के नौ बजे तक खींच जाये। दोनों ही स्थितियां कारखाने से विलम्ब के लिए काफी हैं। लेकिन आज मेरे विलम्ब से निकलने का कारन ऊपर के दोनों कारणों से अलग था। पिछले दो दिनों की लगातार वारिश के कारण कारखाने में जगह –जगह जल जमाव को ठीक करना जरूरी था ताकि उसके कारण कररखाने में कच्चे माल की सप्लाई में कोई बाधा न हो। साथ ही रात भर बिना ब्रेकडाउन के कारखाना चलता रहे और मैं आज की रात अच्छी नींद ले सकूँ।

वारिश के दिनों में पहाड़ियों से घिरे इस शहर का सौंदर्य दुगना हो जाता है। हरियाली की चादर ओढ़े पहाड़ और उसपर झुके हुए बादल जैसे किसी नयी – नवेली दुल्हन को आगोश में लिए हुए हों। प्रकृति का यह संवरा – निखरा रूप किसी भी प्रकृति प्रेमी को भाव – विह्वल किये बिना नहीं रह सकता । किन्तु जब यही वारिश लगातार कई दिनों तक होती रहे तो पहाड़ काल से प्रतीत होते हैं। नदियों के जल से भरे हुए दोनों किनारे विकराल जैसे लगने लगते हैं। दिन में जो पहाड़ और नदी सौंदर्य – बोध के प्रेरक होते है , शाम के घिरते ही भयानक हो जाते है. यहाँ के वारिश की एक खासियत है , बौछारें आती हैं तो खूब तेज़ हवाओं के साथ जैसे पेड़ों को उखाड़ देंगे और पहाड़ों को पछाड़ देंगे।

आज भी ऐसा ही हुआ। मैं कारखाने का काम निपटाने के बाद रात के करीब नौ बजे के आसपास गाड़ी निकालकर घरके लिए रवाना हुआ था। जैसे ही कारखाने के गेट से बाहर निकला कि काले बादलों से आकाश भर उठा था। जोर की वारिश के संकेत आने लगे थे। जैसे – जैसे मैं घर के तरफ बढ़ने लगा , अचानक तेज बौछारें शुरू हो गयी, तेज हवाएँ भी साथ आ रही थी , तूफानी मंजर था , पेड़ झूम रहे थे और कार पर लगातार पड़ती तेज बूंदों को वाइपर से किसी तरह काटते हुए हेड – लाइट के प्रकाश में मैं धीरे – धीरे बढ़ रहा था। ऐसे समय में बिजली विभाग अक्सर बिजली की लाइन काट देता है ताकि बिजली के उलझे , झूलते तार जो सरकारी बिजली विभाग की गुणवत्ता और प्रबंध क्षमता के जीते – जागते प्रमाण हैं , उनपर पर्दा पड़ा रहे।

मैं एक दो किलोमीटर ही आगे बढ़ा था कि मैंने देखा सारी दुकाने बंद हो चुकी थी। कुछ दवा की दुकाने खुली थी। उनकी अपनी प्रकाश ब्यवस्था के कारण प्रकाश नजर आ रहा था। इतने में अचानक बीच सड़क पर हेड लाइट के प्रकाश में एक ब्यक्ति दिखाई दिया। कार के नजदीक पहुचने पर मैंने देखा कि वह अपनी धोती आधी ऊपर उठाये , टूटे हुए छाते जिसकी कमानी लगता है इस आँधी तूफ़ान में टेढ़ी हो गयी थी और उसपर चढ़ा कपड़ा तार – तार हो गया था , किसी तरह बाहों और छाती के बीच समेटे बीच सड़क पर चला जा रहा था। मैं बिलकुल नजदीक साइड में कार करके अचानक कार रोकी , शीशे को थोड़ा नीचे करके जोर से आवाज दी ,” बीच सड़क पर क्यों चल रहे हो ? इस तेज बरसात में किसी गाड़ी से कुचलकर जान देने का इरादा है क्या?”

उस ब्यक्ति ने मेरी आवाज सुनकर जब अपनी गर्दन घुमाई तो मैंने देखा की सत्तर वर्ष के आसपास का एक बूढा आदमी अपने चश्मे पर पड़ी बूंदो को पहने हुए ही हाथ से साफकर बोला , “माफ़ करना बाबू ! पानी चारो तरफ इतना भरा है कि सड़क का कहीं पता ही नहीं चल रहा है। फिर वह मन – ही – मन बुदबुदाने लगा ” नहीं बचेगी , लगता है नहीं बचेगी। ……”

मैंने फिर शीशा नीचे किया और पूछा ,” क्या हुआ , क्या बुदबुदा रहे हो बाबा ?”

” बाबू यह दवा नहीं मिली तो वह नहीं बचेगी..”

फिर पता नहीं क्यों मेरे भीतर से एक आवाज आई और उसे मैंने कार के अंदर आ जाने को कहा, कार की सीट पर मैंने आफिस के पुराने कुछ पेपर और पुराने अख़बार के टुकड़े बिछा दिए ताकि सीट अधिक गीला न हो जाय ,” बाबा कार के अंदर आ जाओ। ”
कुछ झिझकते हुए बूढ़े बाबा अंदर आ गए। वारिश अभी भी उसी गति से लगातार जारी थी। सड़क पर घुटना भर पानी जमा हो गया था। इस स्थिति में कार ड्राइव करना मुश्किल हो रहा था। चार या पांच मीटर से आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था। पहाड़ो पर लगातार वारिश की विकरालता का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता था। बौछारों का जोर और कार के शीशे पर पड़ने वाली बूंदों का शोर दोनों ही इस तूफानी रात का साथ दे रहे थे।

“बाबा क्या हुआ ? आप बुदबुदा रहे थे…, नहीं बचेगी , नहीं बचेगी। ” मैंने अपनी उत्सुकता जताई थी ।

“बाबू क्या आप मेरी मदद करोगे? ” उसके सवाल में अनुरोध और निराशा – मिश्रित जवाब की तैयारी दोनों ही दिखाई दे रहे थे।

“जरूर , आप बोलो तो सही… ।” मैं उसकी कातर नेत्रों से झांकते मदद के लिए मौन निमंत्रण को ठुकरा नहीं सका। पत्नी को मैं पहले ही फोन कर चुका था कि मैं लेट से आऊंगा। इसलिए उधर से किसी तरह की जल्दी घर पहुंचने की निरंतर अनुरोध की संभावना कम थी। और भी कहीं से कोई फोन आने वाला नहीं था।

“मैं अपनी पोती के लिए दवा लेने निकला था। शाम को डाक्टर को दिखाया था। उसने कहा था कि दवाक़फ़ बहुत ज्यादा है। जल्दी से यह दवा लेकर दीजिये नहीं तो रात में अगर साँस लेने में दिक्कत बढ़ गयी तो जान भी जा सकती है।” बाबा एक ही साँस में बोल गए थे।

मैंने पूछा ” कोई दूकान में दवा नहीं मिली क्या? ”

“बहुत सारी दुकानें बंद मिली। अब मैं कहाँ से दवा लाऊँ ?” उनकी आवाज थरथरा रही थी। वेदना का सागर उमड़ पड़ा था।

मेरा मन द्रवित हुए बिना नहीं रहा। मैंने ठान लिया कि कम – से – कम दवा खरीदने में तो इनकी जरूर मदद करूंगा। मैंने कार मोड़ दी। मैं जानता था कि ऐसे मौसम में दो ही जगह दवा मिल सकती है , एक गुरु नानक देव क्लिनिक के दवा काउंटर पर और दूसरे स्माइल लाइन मेडिकल में। क्लीनिक नजदीक होने के कारण मै उसी तरफ कार मोड़ कर बढ़ता गया।

बीच में सड़क पर पानी काफी जमा हो गया था। वारिश अभी भी लगातार उसी गति से जारी थी , मानो कोई आसमान में छेद कर दिया हो। पिछले दो दिनों की वारिश से ऐसे ही दोनों नदियां खतरे के निशान तक छू लेना चाह रही थी। आज की वारिश के बाद तो जरूर बाढ़ प्रबंधन वाले नदी में ऊपर के तरफ बंधे बाँध का पानी छोड़ देंगे और फिर शहर में नीचे बसे लोगो को ऊँचे स्थानों में जाने के लिए अलर्ट जारी किया जाएगा। प्रशासन का काम इसके बाद लगभग ख़त्म, आदमी का जल जमाव से जूझने का काम शुरु। यह हर वर्ष होता था और इस वर्ष भी होगा। मैं यह सब सोचता हुआ कार बढ़ाये जा रहा था। सड़क पर इक्के – दुक्के कार या ऑटो वाले ही नज़र आ रहे थे। अन्यथा सड़क बिलकुल सुनसान थी।

” कहाँ रहते हो बाबा?” मैंने बाबा के अंदर चल रहे विचारों की हलचल के मौन को तोड़ते हुए पूछा था।

” बस ‘नीहारिका’ टावर कैंपस के बगल से जो रोड नीचे के तरफ बस्ती में गयी है उसी में रहता हूँ। ” बाबा ने कहा था।

“घर में और कौन – कौन है?” मैंने बाबा को और भी खुलने के लिए प्रयास करने लगा ताकि उनके अंदर की तकलीफ और विवशता बातचीत करते हुए थोड़ी काम हो जाय।

” घर में तो अब मैं , मेरी बुढ़िया और एक सात – आठ साल की पोती ही बचे हैं। ”

” क्या बेटे – बेटी या और कोई परिवार ,” मैंने थोड़ा बातों को विस्तार देने के लिए पूछा था।

” हाँ , बाबू एक बेटा था। चार साल पहले कारखाने में ठेका मज़दूर में काम कर रहा था। दुर्घटना हो गयी। अस्पताल ले जाते – जाते उसकी मौत हो गयी। ” बाबा के गाल पर ढुलके आंसू मझे साफ़ नजर आ गए थे। वे कहे जा रहे थे , ” उसी साल इसी दुःख में उसकी जोरू भी चल बसी।“

मैं चुपचाप कार चलाये जा रहा था। अपने को दुःख भरा एक प्रसंग छेड़ने के लिए दुखी भी महसूस कर रहा था और कोस भी रहा था।
बूढ़े बाबा किसी भाव में डूबे हुए बोले जा रहे थे, ” उसकी पत्नी के मरने के बाद बेटी को पलने का जिम्मा हम बूढ़े – बूढ़ी पर आ गया। बेटी बहुत तेज है पढने में। दुर्घटना में मर जाने के बाद ठेकेदार और कंपनी ने जो रुपये दिए हैं उसे जमा करवा दिए हैं बैंक में। इससे उसकी पढ़ाई का खर्च निकल जा रहा है। ”

फिर बाबा चुप हो गए। उनके अंदर की वारिश और बाहर की वारिश दोनों में थोड़ा ठहराव जैसा लग रहा था। क्लीनिक नजदीक आ गया था। मैंने वहीं पर गाड़ी रोकी। बाबा के साथ जाकर काउंटर पर दवा ली। सारी दवाईयां और डाक्टर का लिखा पुर्जा एक गुलाबी रंग की पॉलिथीन की थैली में डालकर बाबा के साथ आकर गाड़ी में बैठ गया।

“चलो बाबा मैं भी ‘नीहारिका’ टावर कैंपस के तरफ ही जा रहा हूँ। आगे तक छोड़ देता हूँ।”

“तुम्हारा बहुत – बहुत धन्यवाद बाबू । आप इस बरसात में अपने कार से लेकर यहाँ नहीं लाते तो दवा नहीं मिलती। और अगर दवा नहीं मिलती तो मेरी पोती नहीं बच पाती। आप तो आज भगवान की तरह मुझे मिल गए। . ”

” बाबा बिलकुल ठीक हो जाएगी , आप निश्चिंत हो जाईये , बहादुर बच्ची है। ठीक हो जाएगी। ” मैंने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा था।

वारिश की रफ़्तार थोड़ी कम होने के कारण मैं गाड़ी तेजी से चला रहा था। निहारिका टावर से एक मोड़ पहले मैंने कार रोक दी। यहाँ से मुड़कर मैं अपने घर की और जल्दी पहुँचाना चाह रहा था।

“बाबा, यहाँ से तो चले जाओगे न।”

“हाँ बाबू यहाँ से तो बिलकुल नजदीक है, अब मेरी पोती को कुछ नहीं होगा। वह बच जायेगी।”

बाबा के आँखों में विस्वास देखकर मुझे भी उनके उतर कर जाने के अनुरोध को बेमन से ही स्वीकार करना पड़ा।

” बाबा, सुबह मैं आऊंगा पूछने कि बिटिया कैसी है ?

“बाबू मैं मोड़पर वाली चाय की दूकान पर ही सुबह मिल जाऊंगा। वहीं मैं आपको खबर दे दूंगा।”

बाबा आगे बढ़ गए। तब मैं अपनी कार मोड़कर घर की ओर चल दिया था।

घर पर पहुँच कर जब मुझे चाय पीने के बाद भी अच्छा नहीं लगा तो मैं कार लेकर फिर उसी जगह पर पंहुचा जहाँ मैंने बाबा को छोड़ा था। रात के करीब साढ़े दस बज रहे थे सड़क सुनसान थी। मैंने कार जैसे ही आगे बढ़ायी कार के हेडलाइट की रोशनी में एक पिंक कलर का पॉलिथीन गिरा हुआ दिखाई दिया। मेरा मन अनिष्ट आशंका से काँप उठा। कार की हेडलाइट मैंने ऑन कर रखी थी। कार वहीं रोककर पैदल आगे बढ़ा तो सामने गटर का ढक्कन खुला था। गटर के बगल में एक चप्पल पडी थी। और सामने वही पिंक कलर का पॉलिथीन पड़ा था जिसमें अभी – अभी बाबा के साथ जाकर मैंने दवाईयां दिलवायी थी।

मैंने कांपते हाथों से पालीथीन उठाया था और बाबा के बताये हुए बस्ती की गली में उनके मकान को याद करने लगा। जल्दी से गाड़ी स्टार्ट की और गली के मोड़ पर टीम – टीम लाइट की गुमटी की और बढ़ कर बाबा, पूर्णो बाबा हाँ, यही नाम था उनका, मकान पूछा था।

“यहाँ से तीसरा मकान जो खपड़ैल का है, वही है उनका मकान, अभी तो थोड़ी देर पहले दवा लाने निकले हैं, लगता है लौटे भी नहीं हैं।”

बस्ती में हर आदमी को हर आदमी की खबर होती है, खासकर जब कोई बच्चा या बच्ची बीमार हो तो अवश्य होती है।

मैंने तीसरे खपड़ैल के मकान में कुण्डी खटखटाई। दरवाजा एक वृद्धा ने खोला था। अपने कांपते हांथों से “दवाई है ” कहकर दवा देते ही जल्दी से वहां से लौट गया, अपने को लगभग बचाते हुए ताकि कोई यह न पूछ दे कि बाबा कहाँ रह गए? इस सवाल का मैं क्या जवाब देता?

मैं घर पहुंच कर रात में सोते हुए भी जागते रहा। लोकल न्यूज़ चैनल में खबर आ रही थी कि सुरेखा नदी में जलस्तर बढ़ जाने के कारण नदी के किनारे के रिहायसी क्षेत्रों में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गयी है। नदी का जलस्तर स्लूस गेट से ऊपर आ जाने के कारण इसे बंद कर दिया गया है। स्लूस गेट बंद किये जाने से शहर के नाले का पानी भी नहीं निकल रहा है…… इसीलिये शहर के निचले इलाके में भी जल जमाव बढ़ गया है।

दूसरे दिन शाम को खबर आई की जलस्तर कम हो रहा है और बाढ़ का खतरा टल गया है। इसमें वारिश के थम जाने से अधिक प्रशासन की मुस्तैदी का हाथ है।

तीसरे दिन सुबह के अखबार के तीसरे पन्ने पर जिसमें शहर की सारी अमुख्य और महत्वहीन खबरे होती हैं …… लिखा था,” निचले इलाके में नाले के मुहाने पर वाले स्लूस गेट के खोलने पर एक सड़ी हुयी लाश मिली है। लगता है दो दिन पहले नीचे के इलाके में पानी घुसने के कारण यह मौत हुयी होगी।“

यह खबर फिर कहीं दब गयी कि खुला हुआ गटर एक और जान लील गया।

__END__

—- ब्रजेंद्र नाथ मिश्र

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