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Flowers of Palash

Published by Durga Prasad in category Hindi | Hindi Poetry | Social and Moral with tag flower | school | Teacher | tree

वो पलाश के फूल (Flowers of Palash): It is festival of Holi and Palash tree is in full bloom. My grandfather says that Palash flowers are good as colour for holi. Read Hindi short story

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Hindi Short Story – Flowers of Palash
Photo credit: rollingroscoe from morguefile.com

अभी होली का त्यौहार आया भी नहीं कि गाँव के लड़के इसे मनाने की तैयारी में जूट गये . गाँव में दूर – दूर तक पलाश के लाल- लाल फूल खिल गयें हैं , जिनकी सुन्दरता नयनों को ही नहीं बल्कि मन को भी तृप्त कर देती है. दादा जी कहा करते थे कि होली में रंग खेलने के लिए ये पलाश के फूल बड़े ही उपयुक्त होते हैं. विशेषकर उन गरीब – गुरबों के लिए जिनके पास होली खेलने के लिए रंग खरीदने के पैसे नहीं होते, वे पलाश के फूलों को तोड़कर एक दिन पहले ही पानी में भिगो देते हैं और शुबह पानी जब लाल हो जाता है , तो उससे होली खेलते हैं दिनभर .

बिसु साव की गुमटी के पास दो पलाश के पेड़ हैं- लाल – लाल फूलों से दोनों पेड़ आच्छादित हैं. इनकी टहनियां फूलों के भार को सहन नहीं कर पाती – इसलिए झुक जाती हैं और आते-जाते बच्चों का शिकार हो जाती हैं. बच्चे तो बच्चे हैं , इन्हें क्या करना चाहिए क्या नहीं , मालूम नहीं . दुखद बात यह है कि कोई व्यक्ति इन्हें नहीं बताता कि फूलों को बेमतलब नहीं तोडना चाहिए . फूल सौन्दर्य का प्रतिक है. यह हमारे नयन को ही नहीं अपितु हमारे मन को भी सुख पहुँचाती है. लेकिन बच्चे हैं कि इन फूलों को तोड़ लेते हैं टहनियां झुकाकर . ये बच्चे न तो स्कूल जाते हैं न ही माँ – बाप के कामों में हाथ बंटाते हैं . ये नंग – धडंग भरी दुपहरी में भी घूमते रहते हैं. पलाश के फूल इनकी नजरों में खटक जाते हैं. वे फूलों को तोड़ लेते हैं और रास्ता भर फेंकते जाते हैं. इनके माँ – बाप को पता नहीं कि अपने बच्चों को पढ़ाना – लिखाना भी इनकी जिम्मेदारी है.  ? सरकार भी कोई ठोस कदम नहीं उठाती कि बच्चे पढ़े-लिखे और भविष्य में आदर्श नागरिक बने .

तभी बैजू मास्टर आते हैं और प्रश्नभरी नजरों से बिसु को घूरते हैं और सामने की बेंच पर नित्य की भांति बैठ जाते हैं.

बिसु अपनी नज़र को तिरछी करते हुए मास्टर साहब को इशारों से कुछ कहता है. मास्टर साहब बिसु के इशारे को समझ जाते हैं और माचिस की एक तिली से कान खुजलाने लगते हैं. बिसु जलेबियाँ छानने में व्यस्त है. कचोरियाँ पहले ही छानी जा चुकी है और परात में सजा के रख दी गयी हैं. घुघनी की डेकची काफी गरम है. अभी – अभी चूल्हे से उतारी गयी है. डेकची की ढक्कन अधखुली है. पूरी खुली रहने पर यदा-कदा पलाश के फूल टूटकर डेकची में गिर जाते हैं. ग्राहकों की नजर पड़ने पर वे भला – बूरा सुनाने में नहीं चुकते. जिन्हें पैसा देने का मन नहीं होता , वे इसी बहाने पूरी घुघनी चट कर जाने के बाबजूद मुहं बनाते हुए दोना फेंककर चल देते हैं . बिसु खून का घूँट पीकर रह जाता है. वह जानता है कि हर जगह दो-चार फीसदी लोग इस किस्म के अवश्य होते हैं जो तील का ताड़ बनाकर किसी न किसी रूप में दूसरों को नुकसान पहुंचाते रहते हैं. दूसरी वजह बिसु इस गाँव का भी नहीं है. समीप के गाँव से वह रोज शुबह आता है और दूकानदारी करने के पश्च्यात किसी बालूवाली गाडी से घर लौट जाता है. घर में बीवी और तीन बच्चियां है. लड़का न होने का उसे मलाल है. इसी दूकान से घर की खर्ची चलती है. अगर वह ऐसे लोंगों से छोटी – छोटी  बातों  के लिए उलझता रहे तो उनके पेट पर आफत आ जायेगी. इसलिए वह हंसकर सबकुछ सह लेता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि वह ज़माने की मार सह-सह करके एक कुशल विक्रेता बन गया है.

बिसु जलेबियाँ छानने में तल्लीन है . वह छान छानकर चासनी की कढ़ाई में डालते जाता है. मास्टर साहब अब भी कान खुजला रहे हैं . बीच बीच में वे एक- दूसरे को देख लेते हैं , लेकिन मुहं से कुछ नहीं बोलते. बीसु सोचता है कि पूरी जलेबियाँ छान लेने के बाद ही मास्टर साहब से पूछा जाय. मास्टर साहब की सोच भिन्न है. चासनी की कढ़ाई से जलेबियाँ बाहर निकलने के बाद ही वे बिसु को टोकना उचित समझते हैं.

मास्टर साहब गाँव के प्रायमरी स्कूल में शिक्षक हैं. स्कूल के बगल में ही एक छोटे से कमरे में जीवन – यापन करते आ रहे हैं. स्कूल के बच्चो को पढ़ने में उन्हे शाश्वत सुख की अनुभूति होती है. उन्हें बच्चों के साथ आत्मीय लगाव है. वे जी-जान से उन्हें पढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि बच्चे पढ़- लिखकर अपने गाँव का नाम रौशन करे. हुआ भी यही कई लड़के उनके स्कूल से पढ़ लिखकर इंजिनियर, डाक्टर,वकील, शिक्षक आदि बने हैं और अपने गाँव  का नाम रौशन कर रहें हैं. इसके पीछे मास्टर साहब की सोच है. उनके अनुसार यदि बच्चों का बेस ( आधार ) शुरू से ही मजबूत कर दिया जाय तो वे जरूर कुछ न कुछ अच्छा करेंगे और अपने जीवन में सफल होंगे. यही वजह है कि मास्टर साहब बच्चों का बेस मजबूत करने में कोई कौर कसर नहीं छोड़ते. खूब प्रेक्टिस करवाते हैं . लड़के भले उब जाएँ , लेकिन वे कभी नहीं .

मास्टर साहब करीब तीस साल पहले इस गाँव में शिक्षक बन के आये और यहीं के होकर रह गये. कोई नहीं जानता कि इनके बीवी, बाल – बच्चे भी हैं कि नहीं. उन्होंने एक दिन भी घर जाने लिए छुट्टी नहीं ली. मास्टर साहब के घर – परिवार के बारे किसी को कुछ नहीं अता – पता. किसी के पूछने पर वे बात को टाल देते हैं या चुप्पी साध लेते हैं .

बिसु बताता है कि इनकी माँ का स्वर्गवास हो जाने के बाद उनके पिता जी ने दूसरी शादी कर ली. एक दिन स्कूल की फीस के लिए मास्टर साहब पिता जी से जिद्द कर रहे थे . पिता जी और उनकी सौतेली माँ में किसी बात को लेकर अनबन हो गयी . पिता जी ने पत्नी का गुस्सा उनपर उतारना शुरू कर दिया . जी भर गालियाँ दी और दमभर पीटा , जब इतना से भी जी नहीं भरा तो घर से बाहर निकाल दिया और कहा , ‘ चले जाओ जहाँ जाना है, फिर कभी लौटकर इस घर में मत आना. तब से मास्टर साहब भूलकर भी घर जाने का नाम नहीं लेते.

झगडू मास्टर साहब के यहाँ झाड़ू- बुहारू करता है. वह एक अलग ही बात सुनाता है. वह बताता है कि एक बार मास्टर साहब माता- पिता , पत्नी , बाल बच्चों के साथ नाव से अपना गाँव जा रहे थे , लेकिन दुर्भाग्यवस नाव के भँवर में फंस गयी . सभी लोग जल समाधी हो गये , केवल मास्टर साहब ही बच गये. नदी में बहते लाश की तरह जा रहे थे . गर्मी का दिन था. स्कूली बच्चे उसी समय नदी में स्नान कर रहे थे . अचानक उनका ध्यान इस पर गया. फिर क्या था बच्चे सभी अपनी जान को खतरे में डालकर मास्टर साहब को किनारे ले आये. उल्टा करके पेट का पानी निकाले. जल्दी – जल्दी अस्पताल ले जाकर समुचित ईलाज करवाई. मास्टर साहब बच गये और तब से इसी स्कूल में रह गये. अपने परिवार का पता लगाने पर मालुम हुआ कि कोई नहीं बचा है. पट्टेदारों को जब इस दुर्घटना का पता चला तो मृतकों की आत्मा की शांति के लिए उनका श्राद्ध कर्म कर दिया और बदले में उनकी सारी जमीन-जायदाद ह्ड़प ली. तब से मास्टर साहब को वैराग्य सा हो गया. शिक्षक बहाली का दौर चला तो इनकी भी बहाली हो गयी और इनकी पदस्थापना इसी  प्रायमरी स्कूल में हो गयी तब से वे इसी स्कूल से बंधे हुए हैं . एक आध बार स्थानान्तरण  भी हुआ तो गाँववालों ने इनका स्थानान्तरण – आदेश जिला के उच्चाधिकारी से कहकर रुकवा दिए.

बिसु जलेबियाँ चासनी की कढ़ाई से निकालकर परात में रख देता है और अपनी उँगलियों के इशारे से मास्टर साहब से पूछता है , ‘ दो या चार ? ’ मास्टर साहब भी इशारे से ही बताता है , ‘दो ’. बिसु एक दोना में दो जलेबियाँ देता है. थोड़ी देर बाद दो कचोरियाँ भी मांगने पर देता है. घड़ा का ठंडा जल पीने के बाद एक बीसटक्की निकालकर बिसु को थमा देता है. बिसु आठ रूपये काटकर बारह रूपये लौटा देता है. रूपये गिनने के बाद प्रश्नभरी दृष्टि से घूरते हैं. बिसु समझ जाता है और कहता है , “ तेल – घी का दाम बढ़ जाने से दो रूपये की जगह जलेबी और कचौड़ी ढाई रूपये पीस बेचता हूँ . लेकिन आप से पुराना रेट ही लेता हूँ. सुना है चार – पांच महीने बाद आप सेवानिवृत हो रहें हैं तो कुछेक महीनों के लिए आप से बढा हुआ रेट लेकर कौन सा मुझे बिडला, टाटा , डालमियां बनना है. मास्टर सुनकर मुस्करा देते हैं और बारह रूपये अपनी जेब में डालकर चल देते हैं. बिसु दुसरे ग्राहकों में व्यस्त हो जाता है.

स्कूल की घंटी बजती है . सभी शिक्षक एवं विद्यार्थी प्रार्थना के बाद अपने – अपने वर्ग में चले जाते हैं. बिसु की दुकान पर अब ग्राहक नहीं हैं. कुछ वक़्त कप-प्लेट धोने में बीता देता है वह. कचोरियां और जलेबियों को पुनः परात में सजा देता है . घुघनी की डेकची को पूरी तरह ढँक देता है. चाय की केतली से एक कप चाय ढालता है और बेंच कर एक सामान्य ग्राहक की तरह पीता है. पाकिट से निकालकर एक बीडी सुलगाता है और पीने लगता है धीरे – धीरे . दो चार कश लेने के बाद वह किसी सोच में खो जाता है . तीन – तीन बेटियां हैं  घर में – कितनी जल्द बढ़ रही हैं . शादी करनी कितनी कठिन हो गयी है आजकल . बिना दहेज़ की शादी सोचना बेवकूफी के सिवाय कुछ नहीं है. इतना पैसा वह कहाँ से लायेगा – इस छोटी सी दूकान से तो पेट चल जाता है – यही ईश्वर की कृपा है. ईश्वर चाहेंगे तो सब कुछ पार हो जायेगा. अमीर की बेटी की शादी हंसकर होती है , गरीब की रोकर होगी. वह एक दार्शनिक की तरह सोचने लगता है , तभी स्कूल की घंटी बजती है. शिक्षक एवं विद्यार्थी साथ –साथ जलपान के लिए बाहर निकलते हैं. दूर से ही मास्टर साहब आते हुए दिखाई देते हैं.

मास्टर साहेब को पलाश के फूलों पर दृष्टि पड़ती है . फूल मुरझाये हुए हैं जैसे उनमें जीवन का स्पंदन ही न हो. वे तेज क़दमों से बिसु के पास आते हैं और सवाल दाग देते हैं, “ इन पेड़ों की दुर्दशा किसने बनाई ? ’ बिसु सब कुछ साफ़ –साफ़ बता देता है कि किस प्रकार कुछ उदंड लोंगों ने पेड़ को काटना शुरू कर दिया था और किस प्रकार उसने उन्हे काटने से रोका ही नहीं बल्कि खदेड़ा भी. पेड़ की जान बचाई वो भी अपनी जान पर खेल कर. हाथापाई में उसे चोट भी लगी .

मास्टर साहेब को इस जंगल के पेड़ों से दिली लगाव है . इन्हीं को देखकर वे यहाँ टिक गये वरना …. ! वे व्यथित हो जाते हैं .वे पेड़ के समीप जाते हैं – उन्हें सहलाते हैं और अपनी बाँहों में समेत लेते हैं . तत्क्षण तने से आवाज आती है , ‘ कोई जगह दरिंदों से महफूज नहीं . शांति से जीना भी अब मोहल हो गया है . इंसान की तरह तो कहीं दूसरी जगह भी नहीं जा सकते. काश , हम भी उनकी तरह चल –फिर सकते !

पहले दरिंदों ने साल, सागवान, शीशम , महुआ, आम व् जामुन के पेड़ों को अपने हवश का शिकार बनाये और अब पलाश के पेड़ों की जान के पीछे पड गये हैं . क्या इन हत्यारों के लिए तुम्हारे संबिधान में सजा का कोई प्रावधान नहीं  ? ’ मास्टर साहब की बाहें ढीली पड  जाती है – वे निरुत्तर हो जाते हैं और बोझिल क़दमों से स्कूल की ओर चल देते हैं.

उसी वक़्त स्कूल की घंटी बजती है . मास्टर साहब पीछे मुड कर देखते हैं – दूर तक श्मशान सी निश्तब्धता छाई हुयी है. उनका उद्वेलित मन शंकित हो उठता है कि शायद अब न खील पाएंगे ‘वो पलाश के फूल ’ .

लेखक : दुर्गा प्रसाद ,

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