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Ants and My Breads

Published by Durga Prasad in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag food | money | office

I was living in a mess. Other occupants had to deicide whether I should stay there, Read social Hindi short story, chapter from an autobiography.

चीटियाँ जो मेरी रोटियां चट करनेवाली थीं.

Black-ants

Hindi Social Short Story – Ants and My Breads
Photo credit: Jusben from morguefile.com

मैं उन दिनों राँचीरोड मरार के एक मेस में रहा करता था और अपना खाना खुद बनाया करता था. इस मेस में पांच लोग थे और छत्ता मैं था. मुझे मेस में शामिल किया जाय या नहीं यह बात विचाराधीन थी. सभी पांचों बंगाली थे और मोदक बाबु इंचार्ज थे. कतरास का एक लड़का मुझे इंटरव्यू देते वक्त एकाउंट्स ऑफिस में मिल गया था. उसने ही मुझे अपने साथ मेस में रखने के लिए ले आया था. मोदक बाबु अड़ियल किस्म के आदमी थे. किसी की बात सुनना उसे अच्छा नहीं लगता था. बात करने में लोग सहमते थे. साहू जी की भी कमोवेश यही हालत थी. एक तरफ उसकी इज्जत दावं पर लगी हुई थी तो दूसरी तरफ मुझे मदद न करने का पश्चाताप था. उसने डरते-डरते मोदक बाबु से कहा,

“ मेरा परिचित है , गोबिन्दपुर ,धनबाद का रहनेवाला है – एकाउंट्स ऑफिस में आज ही जोयन किया है . मैं इसे अच्छी तरह जानता हूँ. आज से यहीं रहेगा, हमलोगों के साथ – दुर्गा प्रसाद नाम है इसका. अच्छा लड़का है. “

“यहाँ कहाँ जगह है , दो कमरे हैं ओर पांच आदमी हैं हमलोग. किसी तरह एडजस्ट करके हमलोग रहते हैं.” मोदक बाबु ने अपनी बात रख दी .

साहू जी हार माननेवालों में से नहीं थे. उसने पलटवार करते हुए दलील दी,” बैठक में तो कोई नहीं सोता, वहीं सो लेगा, कुछ दिनों की ही तो बात है, हमलोगों से बड़ा पोस्ट में जोयन किया है, धुलिया साहेब के चाहने से बैचलर फ्लेट में तो क्वार्टर मिल ही जायेगा. “

“बेडिंग ओडिंग कुछ है?” मोदक बाबु ने सवाल किया साहू कि तरफ मुखातिब हो कर.

” एक थैला के सिवा कुछ भी नहीं है इसके पास.” , “ साहूजी ने सच्ची बात रख दी.

हकीक़त भी यही थी कि मेरे पास दो- चार कपड़ों के सिवा कुछ भी न था. खीस कर मोदक बाबु ने कहा, “ एक दम कंगाले है क्या?”

साहूजी ने मेरी इज्जत पर पर्दा डालते हुए अपनी बात रखी, “ ऐसी बात नहीं, जल्दीबाजी में घर से सामान वगैरह ले नहीं सका. सोचा थोड़े था कि आज ही इसे जोयन करना होगा”

साहू बातचीत के सिलसिले में मेरे बारे में सबकुछ जान चूका था. मैंने अपनी स्थिति से उसे अवगत करा चूका था. उसने अपनी जिंदगी  में ऐसी कई स्थितिवों से सामना कर चूका था. इसलिए मुझपर सहानुभूति होना स्वाभाविक था.

“विछावन तकिया कुछ भी नहीं है , कैसे सोयेगा?”- मोदक जी ने साहूजी से सवाल किया .

गेहूँवाला बोरा पड़ा है, वही ला देता हूँ, उसीपर सो लेगा , दो-चार दिनों की ही तो बात है. “

“ठीक है. “ और तकिया ? – मोदक बाबु ने जानना चाहा.

“ बोरे के नीचे दो-चार ईंटा रखकर काम चला लेगा.”

मेरी ओर विश्वास के साथ देखते हुए साहूजी ने मोदक बाबु को आश्वस्त किया. मैं काफी थका हुआ था ओर इन सारी बातों में काफी वक्त गुजर गया . रात के ग्यारह बज रहे थे. मैं ने बोरा सलीके से बीछा लिया ओर चार- पांच ईटों को बोरे के नीचे दबाकर तकिये के मुआफिक बना लिया. थैला जो मेरे पास था उसे अपने माथे के नीचे रख लिया ताकि गुलगुल लगे.

मोदक बाबु बीड़ी का कश लेते हुए मेरे पास आकर खड़ा हो गया ओर बोला,” वाह! खूब ! कितना अच्छा बिस्तर लग गया ! “

मैंने कुछ भी जवाब देना मुनासिब नहीं समझा, चुप रहा. इस तरह तीन- चार दिन बीत गए. साहूजी ने मुझे नारायण साव के होटल में दोपहर एवं रात के भोजन के लिए महिन्वारी लगा दिया था – तीस रूपये महीने पर लेकिन नाश्ता की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई थी. पांच पैसें में पाव भर सीझा सकरकंद मरार हटिया से खरीद कर खा लेता था. मेरे पास दो- तीन रूपये ही बचे थे ओर मुझे बीस – पचीस दिन चलाने थे. मेरे लिए मरार नई जगह थी ओर मैं किसी से पैसों के लिए मुहं खोलना नहीं चाहता था. आर. पी. धुलिया साहब  एडवांस के लिए मुझे रोज टरकाया करते थे. एक – एक दिन मेरे लिए काटना मुश्किल लगता था. अब भी मुझे भगवान पर विश्वास था कि जल्द ही स्थिति में सुधार होगा. जब मुझे एडवांस की राशि मिल जायेगी. वो कहतें हैं न कि आशा पर दुनिया टिकी है. मेरे साथ भी वही बात थी.

कबीर दास का दोहा “ आशा टीसना न मिटे कह गए दास कबीर “ मेरे लिए प्रेरणा-श्रोत थे. एक बजे टिफिन होती थी. बिना नाश्ता किये एक बजे तक रहने की बात पता नहीं कैसे समा गई मेरे दिमाग में. मेरे पास मात्र दस पैसे ही बचे थे अर्थात महज दो दिनों का ही नास्ता. मैनें धुलिया साहेब से एडवांस के पैसे मांगे तो सेकंड हाफ में देने की बात कही. मैं मुहं लटकाए अपनी सीट पर आकर बैठ गया. सेकण्ड हाफ में मैं साहेब का इन्तजार करता रहा, लेकिन वे ऑफिस आये ही नहीं. पता लगाया वे किसी जरूरी काम से राँची चले गयें हैं , ओर संभवत वे आज नहीं आ पायेगें. ध्यानीजी या मिश्राजी से पांच रूपये उधार मांगने की बात सोची, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया. सोचा पता नहीं दे या न कर दे. इसी शंका में मुहं नहीं खोल सका.

एक दिन बिना नास्ता किये रह गया तो सिर में भीषण दर्द होने लगा था. यही नहीं लेजर पोस्टिंग में भी भूल होने लगी थीं. दो दिन इतने जल्द आ गए – एक-एक कर कि मुझे पता ही नहीं चला ओर बाकी बचाकर रखे गए दस पैसे भी सीझा हुआ सकरकंद खरीदने में खर्च हो गए. मैं इतना व्यस्त था कि कल क्या होगा इसका एहसास ही न रहा. मंगलवार का दिन था. नहा-धोकर हनुमान चालीसा का पाठ किया – गीता- पाठ किया. मैं इतना मशगुल था – खोया हुआ था कि मुझे याद ही न रहा कि मेरे पास उस दिन के लिए नास्ता के पैसे नहीं हैं. मुझे जब असलियत मालूम हुई तो मैं किंग कर्त्वय विमूढ़ हो गया. मैंने इधर-उधर पैसे खोजने शुरू कर दिए ,शायद दो- चार आने भूल से कहीं रख दिए गए हों , और ईश्वर कृपा से मिल जाये. बहुत खोजा लेकिन रहे तब न मिले .

कहतें हैं न कि भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं. इंटों के बीच में मैंने चार रोटियां सप्ताह भर पहले दबाकर रख दी थीं. मेरे चेहरे पर खुसी के भाव उभरने लगे. मैंने रोटियों को बड़ी सावधानी से निकालीं- देखा चारों तरफ लाल-लाल चीटियाँ लगी हुईं हैं – आधे से ज्यादा चट कर गई हैं . मैंने इतनी ही देर में निर्णय ले लिया था कि जो भी बचा है , उसे मुझे खाना है . मैंने चीटियों को अच्छी तरह से एक-एक कर झाड़ा और रसोई में जाकर उन पर नून- तेल लगाया .

मोदक बाबु की सधी नजरों से मैं बच न सका. वे परोठा बना रहे थे. उसने पूछ दिया, “ तुम्हें रोटी कहाँ से मिली , नून –तेल क्यों पोत रहे हो?”

मैंने उन्हें सच- सच सारी बातें बता दीं. उसने मुझे गले से लगा लिया –बड़े प्यार एवं दुलार से बोला , “ आज से तुम इसी मेस में खाओगे, चाहे पैसा तुम्हारे पास हो या न हो.”

उसी दिन मुझे मालूम हुआ कि मोदक बाबु के सीने में एक सच्चा इंसान भी बास करता है. मैंने जो धारणा उनके प्रति बना ली थी वह सब गलत साबित हुआ. मैं इंडिया फायर ब्रिक्स छोड़ कर १९६८ में चला आया और पी एंड डी, एफ. सी. आई.,सिंदरी जोयन कर लिया.  पी एफ का पैसा निकालने मरार, राँची रोड , गया तो पता चला मोदक बाबु अब इस दुनिया में नहीं रहे – सब को छोड़कर एक नई दुनिया में चले गए जहाँ से लौटकर फिर कोई कभी नहीं आता. मेरी आँखे भर आई यह जानकार – बोझिल क़दमों से रामगढ़ बस स्टेंड आ गया. बस में सीट नहीं थी. मुरली बाबु मिल गए . अप्जिद कि और अपने घर ले गए. कम्पनी के सभी लोगों के बारे में बात-चीत हुई. थका हुआ था ही. खा- पीकर सो गया – मोदक बाबु को याद करते- करते. सोते वक्त जिसकी लोग याद करते हैं, वे स्वप्न में अवश्य आतें हैं. हवा में नमी थीं. मैं बाहर खटिया पर बैठ कर पेपर पढ़ रहा था. देखा मोदक बाबु उसी अपनी जानी पहचानी अंदाज में मुस्कराते हुए मेरे समीप आया और प्लेट थमाते हुए बोला , “आज पकौड़ी बनी थी, लो खाओ.”

मैं उनका हाथ पकड़कर अपने पास बैठाना चाहा, लेकिन वे पकड़ में कहाँ आनेवाले थे. एक हल्की सी चपत मेरे गाल पर लगाकर मेरी नजरों से ओझल हो गए. इतने में भोर हो गया और मुरली बाबु ने मुझे जगा दिए. अभी तो थे मोदक बाबु – कहाँ चले गए – जब अपनी गलती का एहसास हुआ – भ्रम टुटा तो जीवन और मृत्यु का फर्क समझ में आया. आज मोदक बाबु भले ही दुनिया में न हो, लेकिन हर पल जब कभी भी उनकी याद आती है, वे मेरे पास ही आ जातें हैं.

लेखक – दुर्गा प्रसाद , बीच बाजार , जी. टी. रोड, गोबिन्दपुर , धनबाद ( झारखण्ड ) – १२ जून २०१२ दिन – मंगलवार – समय ११.४१ पी. एम.

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