डा. रामविलास शर्मा की जन्म शताब्दी १० अक्टूबर २०१२ को पड़ी थी. जन्म शताब्दी साहित्य जगत में बड़े ही आदर एवं श्रधा के साथ मनाई गई. इनका जन्म १० अक्टूबर १९१२ को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिला के ऊँचगाँव नामक ग्राम के एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था. इनकी प्रारम्भिक शिक्षा- दीक्षा गाँव के विद्यालयों में ही हुई. डा. शर्मा बचपन से ही मेघावी छात्र थे. प्रारम्भिक शिक्षा खत्म करने के बाद उच्च शिक्षा हेतु वे झांसी चले आये. चूँकि इनका वाल्यकाल ग्रामीण परिवेश में गुजरा, उन्हें किसान एवं मजदूर लोगों के जीवन – दशा को बहुत करीब से जानने – सुनने का मौका मिला.
गाँव के जमींदार एवं साहुकार किसानों के साथ अत्याचार करते थे तथा उन्हें वाजिब हक से वंचित रखते थे. समाज में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो उनके विरुद्ध आवाज उठाने का साहस कर सके. यदि कोई सर उठाता भी था तो उसे बेरहमी से कुचल दिया जाता था. गरीब – गुरबों का शोषण चरम सीमा पर था. किसानों की अवस्था तो इतनी दयनीय थी कि वे रोजमर्रे की जरूरतों के सिवाय कुछ ज्यादा नहीं सोच सकते थे. डा. शर्मा के मन – मस्तिष्क पर इन सारी बातों का बाल्यकाल ही में ऐसा रंग चढा जो ताजिंदगी बरकरार रहा. यही वजह थी कि जब वे उच्च शिक्षा के लिए झांसी आये तो क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके. उस समय झांसी में मार्क्सवादी आंदोलन और प्रगति लेखक संघ क्रांतिकारी विचारों के प्रचार एवं प्रसार में अग्रणी भूमिका निभा रहे थे. डा. शर्मा उस वक्त के तीन व्यक्तियों – जोशी, डांग और रणदिवे के संपर्क में आने से अपने को रोक नहीं सके. उन्हें बहुत करीब से इन्हें देखने, जानने, एवं सुनने का मौका मिला. इनके मन – मष्तिष्क में तो पहले ही से क्रांतिकारी विचारधारा बीज के रूप में था ही, इनके सन्सर्ग में खाद – पानी मिलने से जल्द ही विशाल बट – बृक्ष का रूप ले लिया.
इन्होंने बड़े ही नजदीक से कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्य – कलापों को देखा. फलस्वरूप अंदरुनी बातें भी ज्यादा दिनों तक इनसे छुपी नहीं रह सकीं. ये खुलकर सामने आ गए और कम्युनिस्ट पार्टी के संकीर्णतावादी एवं साम्प्रदायिकतावादी शक्तियों का पत्र – पत्रिकायों में खुलकर विरोध किया. यहीं से उनकी पहचान एक प्रखर आलोचक के रूप में प्रतिस्थापित हुई.
उन्होंने सब कामों को करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखी. लखनऊ विश्वविद्यालय से इन्होंने १९३४ में अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया. १९४० में पी.एच.डी. भी कर ली. लखनऊ विश्वविद्यालय में १९३८ तक अध्यापन करने के बाद १९४३ में आगरा चले आये. १९७१ तक बलवंत राजपूत महाविद्यालय में अंग्रेजी विषय के विभागाध्यक्ष रहे. १९७१ से १९७४ तक कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी विद्यापीठ के निदेशक रहे. १९८१ में दिल्ली आ गए और जीवन के अंतिम क्षणों तक यहीं रहे. जीवनपर्यंत डा. शर्मा साहित्यिक गति – विधियों से सक्रियरूप से जुड़े रहे.
डा. शर्मा आजीवन हिन्दी साहित्य की सेवा में जुटे रहे. यद्यपि वे अंग्रेजी साहित्य के विद्वान थे, लेकिन उनका झुकाव हिन्दी साहित्य की ओर अपेछाकृत ज्यादा ही था जैसा कि उनकी कृतिओं से ज्ञात होता है. यही वजह है कि अंग्रेजी भाषा में उनके द्वारा लिखित नाममात्र पुस्तकें हैं जबकि हिन्दी में लिखी पुस्तकों का एक विशाल भण्डार है. “An Introduction to English Romantic Poetry”, “Studies – Nineteenth Century English Poetry”,”Essays On Shakespearean Tragedy” अंग्रेजी भाषा में लिखी प्रमुख किताबें हैं, जबकि हिन्दी में किताबों का एक अक्षुण्य भण्डार है. सच पूछिए तो उनकी आत्मा भारतीय मिट्टी, भारतीय भाषा एवं भारतीय लोगों में ही रसती – बसती थी. उनको अपने देश और यहाँ के लोगों से बेहद प्यार था. अपनी आत्म – कथा लिखी तो पुस्तक का नाम बड़ी ही श्रद्धा से “अपनी धरती अपने लोग” देना न भूले. वे कभी भी नाम के भूखे नहीं रहे. उन्हें ‘साहित्य जगत में ‘धीर, वीर, गंभीर मना’ कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
वे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवं सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘ निराला ‘ की कवितायों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे. यही वजह थी कि उनका झुकाव शुरू – शुरू में कविता लिखने की ओर रहा. १९४३ में ‘ तारसप्तक ‘ पत्रिका में सबसे पहले उनकी कविता प्रकाशित हुई जिसका संपादन अज्ञेय जी करते थे. जल्द ही उनकी दो कविता संग्रह ‘रूपतरंग’ और ‘सदियों के सोये जाग उठे’ प्रकाशित हुए. गद्य में वे मुंशी प्रेमचंद के कायल थे. भारतेन्दु, निराला एवं प्रेमचंद आलोचनातमक पुस्तकें इस बात के प्रमाण हैं. लोग कविता के अर्थ तो सहजता से कर लेते थे लेकिन विरले ही थे जो इनका अर्थ समझ पाते थे या समझने का प्रयास करते थे. अतः कविता के प्रति इनका मोह भंग हो गया. फलस्वरूप कविता की तरफ से मजबूरन इनको अपना हाथ खींचना पड़ा. कविता से हटकर गद्य की ओर इनका ध्यान जाने लगा. यही नहीं विभिन्न विषयों एवं विधावों में इनकी लेखनी दौड़ पडी. हिन्दी साहित्य की आलोचना, समीक्षा, इतिहास में इनकी गहरी रूचि थी. इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं-
‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना ‘, ‘ महावीर प्रसाद द्ववेदी और हिन्दी नवजागरण ‘ प्रेमचंद और उनका युग ‘ , निराला की साहित्य साधना – खंड एक,दो एवं तीन, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएं ‘ लोक जागरण एवं हिन्दी साहित्य , हिन्दी जाति का साहित्य , भारतीय साहित्य की भूमिका, भूमिका ,भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, हिन्दी जाति का साहित्य , गांधी, आंबेडकर,लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं इत्यादि .
चूँकि इनमें मार्क्सवाद की छाप बचपन से ही पडी थी , इसलिए मार्क्सवाद पर भी इनकी पुस्तकें प्रकाशित हुईं. मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य एवं भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद इनकी दो प्रमुख किताबें हैं. इन्होने ‘ अपनी धरती अपने लोग ‘ शीर्षक से अपनी आत्मकथा भी लिखीं जो हिन्दी साहित्य में एक अमूल्य धरोहर है.
डा. शर्मा का योगदान हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में बहुआयामी है. वे कवि हैं तो उनकी सोच दूसरे कवियों से हटकर है. उनके अनुसार कविता का अर्थ कर लेना और कविता को समझ लेना इन दोनों में बड़ा अंतर होता है. कविता का अर्थ क्या है उसे समझना उतना आवश्यक नहीं होता जितना कविता को समझने का अर्थ क्या है उसे समझना. उनके विचार में कविता को सकझने के लिए भारतीय दर्शन की यथार्थवादी धारा की जरूरत है न कि भावुकता की.
डा. शर्मा एक निर्भिक आलोचक हैं. इनकी आलोचना पद्धति मौलिक तत्वों एवं तथ्वों के ठोस आधार पर आधारित हैं. वे उन्हीं बातों को अभिव्यक्त करते हैं जिनपर इनका पूर्ण अधिकार होता है. हवा में किसी बात को उछालना इनको नहीं भाता. वे विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण में सजग प्रहरी तो हैं ही साथ ही साथ अपने विचारों के मामले में गंभीर भी उतने ही हैं. यह विशेषता बहुत कम आलोचकों में देखने को मिलती है. वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोक जागरणवाली परंपरा के पोषक हैं और अपनी पुस्तक में इसका बखूबी निर्वहन करते हैं. उनके व्यक्तित्व की यह भी एक विलक्षण गुण है कि वे जो बोलते हैं उन्हें करते भी हैं. उनके अनुसार साहित्य की श्रेष्ठता संघटन में है न कि विघटन में, जोड़ने में है न कि तोड़ने में. लोक मंगल की अवधारणा को , आचार्य शुक्ल की तरह, अपने साहित्य में जगह देने में वे कहीं भी कृपणता नहीं दिखलाई है. शासक वर्ग कभी भी इतिहास का सही जानकारी नहीं देते. साहित्यकार का सामाजिक दायित्य बन जाता है कि वह जन – मानस को इतिहास की सही जानकारी दे और भूले – भटके लोगों को सही दशा व दिशा प्रदान करे. परम्परा विरासत में प्राप्त नहीं होती है. इसे प्राप्त करना पड़ता है. यह सर्वदा एक सा नहीं रहता.
इसमें निरंतर परिवर्तन होते रहता है. परम्परा में इतिहास एवं संस्कृति के मौलिक तत्वों की अहं भूमिका रहती है. डा. शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ परम्परा का मूल्यांकन ‘ में स्पष्ट किया है कि समाजवादी संस्कृति पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ती बल्कि उसे आत्मसात करके आगे बढती है. दूसरे देशों और भारत के लिए साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन बिलकुल भिन्न है. इसकी मुख्य वजह हमारी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति है. हमारे देश की संस्कृति से यदि रामायण और महाभारत को निकाल दिया जाय तो हमारी सांस्कृतिक एकता टूट कर विखर जायेगी. ऐसे ही व्यास एवं बाल्मिकी को नज़रअंदाज़ कर दिया जाय तो हमारा काव्य साहित्य श्रीहीन हो जायेगा. डा. शर्मा एक कुशल आलोचक ही नहीं अपितु एक प्रतिभावान समीक्षक भी थे. उनकी समीक्षा मार्क्सवादी विचारधारा एवं चिंतन पर आधारित है – इसे ही आलोकित किया जाता है. इसमें कोई दो मत नहीं कि डा. शर्मा ने अपनी समीक्षा/ आलोचना में मार्क्सवादी विचारधारा का उपयोग ( यदि इसे सदुपयोग कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ) निर्भीकतापूर्बक किया है. वे मार्क्सवाद के वर्ग – संघर्स एवं वर्ग – विभाजन में विश्वास रखते थे. उनका मानना है कि कोई भी काव्य चेतना रातों – रात उत्पन्न नहीं होती, बल्कि वह अपनी परम्परा के विकास या परिवर्तन का प्रतिफल होता है. ध्यातव्य है कि डा. शर्मा की समीक्षा का मानदंड रचना के यथार्थ – बोथ से है. वैचारिकता से ज्यादा महत्व व्यावहारिकता को देते हैं.
डा. शर्मा. इसलिए मार्क्सवाद के यथार्थ बोध से रचना का मूल्यांकन नहीं किया बल्कि रचना के यथार्थ – बोध से मार्क्सवाद का विश्लेषण किया. डा. शर्मा की जो समीक्षात्मक दृष्टिकोण मार्क्सवादी सन्दर्भ में मुखरित हुई है, वह अपने आप में एक बेजोड़ मिशाल है. निष्कर्षतः यही सोच, यही विचार, यही संवेदनशीलता समीक्षा के दृष्टिकोण को पुष्ट करती है और डा. शर्मा की समीक्षा रचना के आंतरिक धर्म एवं मर्म को समझने में कोई भूल नहीं करती.
लेखक के रूप में डा. रामविलास शर्मा की पहचान किसी का मुहँताज नहीं. किताबों की एक लंबी फेहरिस्त है जो हिन्दी साहित्य जगत में उनके देदीप्यमान व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करती रहेगी. आज हम उनकी जन्म शताब्दी मनाने जा रहे हैं और उनकी सौयीं पुण्य तिथि पर श्रधान्जली अर्पित करने जा रहे हैं. हमारी सच्ची श्रधान्जली तभी होगी जब हम उनके साहित्य में सन्निहित जीवन- मूल्यों, आदर्शों व लोक – मंगल की भावनाओं को अपने जीवन में आत्मसात करें |
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