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THAT PRECIOUS PERIOD OF MY LIFE

Published by Durga Prasad in category Hindi | Hindi Story | Love and Romance with tag aunt | college | grandfather | Love | marriage | twins

To understand a woman’s mind and heart is sometimes very difficult. This is a Hindi love story which shows different aspects of woman and her thinking

hands-hold-rings

Hindi Love Story – THAT PRECIOUS PERIOD OF MY LIFE
Photo credit: earl53 from morguefile.com

अभिव्यक्ति

प्रस्तुत कहानी ‘वो जीवन की अनमोल घड़ी’ के सम्बन्ध में यह कहना ज्यादा उचित होगा कि यह हमारे जीवन की एक विशिष्ट पहलु को उजागर करती है और हमें कहानी के प्रत्येक पात्र के बारे कुछ सोचने-समझने के लिये मजबूर कर देती है।

नारी के मन में उठते हुये विभिन्न तरंगों को उन्हीं के मुख से व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। ऐसे नारी के मन को टटोलना एक बड़ा ही दुरूह कार्य है। जब इस बात पर बहस छिड़ी तो मेरे मित्र मजुमदार बाबू ने मुझे शरतचन्द्र के उपन्यासों को पढ़ने की सलाह दे डाली। मैने उनके परामर्श को बड़ी गंभीरता से लिया और कुछेक महीनों में दादा के उपन्यास पढ़ डाले। मुझे कहाँ तक सफलता मिली , इसका निर्णय पाठकगण ही कर सकते हैं-प्रस्तुत कहानी ‘वो जीवन की अनमोल घड़ी‘ को पढ़कर।

वो जीवन की अनमोल घड़ी

विभा के जुड़वे बच्चे हुये हैं। मातृ-सदन में आज उसका पाँचवा दिन है। बच्चे पालने में रो रहे हैं। लगता है उन्हें भूख लगी है। नर्स एक बच्चा को विभा के बगल में लिटा कर चली जाती है। दूसरा बच्चा चित्कार करने लगता है-एक तरह से विद्रोह जता रहा है। नर्स बच्चे की भाषा से वाकिफ है। वह समझ जाती है कि बच्चा भूखा है और उसे भी उठाकर उसकी माँ के पास छोड़ जाती है।

विभा थकी हुई है। दो-दो बच्चे एक साथ जन्म देना कोई आसान काम नहीं। यह नारी ही है जो सबकुछ झेल लेती है। यही वजह है कि ईश्वर ने उन्हें असीमित सहन-शक्ति प्रदान की है। यह बात पुरूषों में कहाँ !

पहला बच्चा कुछ टटोल रहा है। विभा समझ जाती है और उसे स्तन-पान करा रही है। दूसरा बच्चा दूसरी और हाथ-पाँव मार रहा है। वह बच्चे को थपथपा रही है, लेकिन बच्चा चुप होने का नाम तक नहीं लेता – रोते जा रहा है.  वह दूसरे बच्चे को भी सीने से लगा लेती है। बच्चा मजे से दूध पी रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने रोकर जंग जीत ली है।

विभा की आँखें लग गई हैं। पहला बच्चा शांत हो गया है मानो उसका पेट भर गया हो। दूसरा बच्चा अब भी मजे से दूध पी रहा है।

मेरी आहट से विभा की नींद उचट जाती है। वह झट बच्चे को बगल में सुला देती है और अपने अस्त-व्यस्त वस्त्रों को समेटने लगती है। वह मेरी ओर नजर उठाकर देखती है और पुनः सो जाती है।

मुझे समझने में देर नहीं लगती कि विभा पर दवा का असर है। मैं बाहर निकलकर बारामदे की बेंच पर बैठ जाता हूँ – बैठे-बैठे मेरी आँखें लग जाती हैं और मैं अतीत में खो जाता हूँ।

विभा और मैं साथ-साथ भारती विद्यापीठ में पढ़ा करते थे। विभा के पिता जी बिल्डर थे। उनकी माली हालत काफी अच्छी थी। मैं पूणे में विश्रान्तबाड़ी के एक छोटे से किराये के मकान में नाना जी के साथ रहता था। नाना जी डाकघर में किरानी थे। सेवानिवृति के पश्चात वे यहीं बस जाना चाहते थे। ग्रेच्यूटी एवं भविष्य-निधि के भुगतान के लिये वे रोज दफ्तरों का चक्कर लगाते रहते थे। पेंसन शुरू हो गई थी जिससे घर में इज्जत बनी हुई थी। मामाजी ने अपनी सारी पढ़ाई पूणे में ही की थी और पढ़ लिख लेने के बाद वे किसी बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनी में एम0आर0 थे। वे ज्यादातर टूर पर ही रहते थे। ऐसा काम ही था उनका.  पैसे की जरूरत पड़ने पर मैं नाना जी से ही माँग लिया करता था। वे बेहिचक पैसे निकालकर दे दिया करते थे, लेकिन पता नहीं क्यूँ मामी जी को यह बेहद खलता था। वह नहीं चाहती थी कि मैं नाना जी के साथ रहकर उनकी बोझ बनूँ . वे ऐसे अवसरों में आँखें फाड़-फाड़कर मुझे घुरती थीं। मैं देहाती था, लेकिन इतना जाहिल भी नहीं था कि मामी जी के चेहरे का हाव-भाव न पढ़ सकूँ . ऐसे वक्त में मुझे माँ की नशीहत याद आ जाती थी।

माँ ने गाँव से आते वक्त मुझे हिदायत दे डाली थी- ‘‘तुम शहर पढ़ने-लिखने के लिये हजारों मील दूर जा रहे हो। मैं अपने सीने पर पत्थर रखकर तुम्हें एक अनजान जगह भेज रही हूँ . तुम्हारी मामी को वहाँ रहना कतई गवारा नहीं होगा। मैं चाहती हूँ कि तुम अपनी मामी के बारे में सदैव अच्छा सोचो – अच्छा करो। इससे उसके मन में अच्छा प्रभाव पडे़गा और वह धीरे-धीरे सामान्य हो जायेगी । मैं चाहती हूँ कि तुम मामी के किसी बात का बूरा मत मानो तथा उसके कामों में हाथ बटाओ। मुझे विश्वास है कि तुम अपने उद्देश्य में सफल हो जाओगे और पढ़-लिखकर एक कामयाब इंसान बनोगे.”

कभी-कभी मामी जी बड़ी ही कड़वी बात बोल दिया करती थी। मेरे मन में क्रोधरूपी बीज अंकुरित हो जाया करता था, लेकिन मैने इसे कभी भी पौधे का रूप लेने नहीं दिया।

मामी अपने व्यवहार में अक्सराँ अपना मानसिक संतुलन खो बैठती थी, लेकिन मैं ऐसे अवसरों में सदा धैर्य से काम लेता था। मामी मुझसे उम्र में जरूर बड़ी थी, लेकिन समझदारी में……..।

नाना जी तो पेंशन की राशि से मुझे पैसे दिया करते थे। इसलिये मामी जी खुले तौर पर विरोध नहीं जता पाती थी। लेकिन उनके मन के भाव उनकी आँखों में प्रतिबिम्बित होते रहते थे। ऐसे वक्त में उनके चेहरे का लाल होना एक सामान्य बात थी। नाना जी ने कभी भी ऐसी बातों पर ध्यान नहीं दिया। वे व्यर्थ के चिन्तन, चेष्टा और बहस से कोसों दूर रहते थे। वे अपना समय ज्यादातर गीता प्रेस, गोरखपुर के पुस्तकों को पढ़ने में व्यतित करते थे. ‘कल्याण’ में जब डूब जाते थे तो खाना तक भूल जाते थे.

नाना जी एवं मामी जी में जब कभी किसी बात को लेकर कहा-सुनी हो जाती थी, तो मैं एक निरीह प्राणी की तरह मन ही मन साई-बाबा का स्मरण करने लगता था कि साई तू ही सम्हाल इस कलह को और सब कुछ ठीक कर। थोड़ी देर बाद ही सब कुछ सामान्य हो जाता था जैसे नाना जी एवं मामी जी के बीच कुछ हुआ ही नहीं। नाना जी को सुबह-सुबह चाय पीने की लत थी। मामी जी सहजता से खालिश दूध में तीन कप चाय बनाकर ले आती थी-एक कप नाना जी की ओर बढ़ा देती थी, दूसरी कप मेरी और तीसरी वह खुद लेकर हमारे पास ही मोढ़ा खींचकर बैठ जाती थी। जहाँ हम सहमें हुये तेजी से चाय पीते थे, वहीं मामी जी आहिस्ता-आहिस्ता चाय की चुस्की लेती थी। सच पूछिये तो उस समय मामी के कपोलों पर खिली हुई प्रसन्नता इंद्रधनुषी-आभा से कम नहीं होती थी। मुझे इस अप्रत्याशित परिवर्तन से आश्चर्य कम, भय ज्यादा होने लगता था। मैं भीतर से इतना भयभीत हो जाता था कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाय। चाय पीते वक्त भी मामी जी की नजरें हम पर टिकी रहती थी एक भूखी शेरनी की तरह।

मैं गाँव से पाँचवीं तक पढ़कर पुणे आया था। दादा जी के श्राद्ध में परम्परानुसार मुझे मुंडन करवाना पड़ा था। एक लम्बी झाड़दार चुड़की (शिखा) मेरे सिर के मध्य में छोड़ दी गई थी। नाना जी मुझे अपने साथ पुणे ले आये थे। मेरे गाँव के विद्यालय की अवस्था बड़ी ही दयनीय थी। विद्यालयों का सरकारीकरण हो जाने एवं वेतन में आशातीत वृद्धि हो जाने के बावजूद पढ़ाई के स्तर में कोई सुधार नहीं हो पाया था। सुख-सुविधा तो बढ़ी, लेकिन पढाई बद् से बद्तर होती चली गई। शिक्षक अपना अधिकांश समय गप्पें लड़ाने या राजनीतिक चर्चा-परिचर्चा में गुजार देते थे। विधार्थीगण वर्ग में या वर्ग के बाहर उधम मचाते रहते थे। मार-पीट या गाली -ग्लौज एक आम बात थी। शिक्षको का नियन्त्रण बच्चों के उपर से उठ सा गया था। इन सारी बातों से नाना जी खिन्न थे और वे नहीं चाहते थे कि इस माहौल में मेरी जिन्दगी बर्वाद हो जाय। वे कभी-कभी आहत होकर अपना मन्तव्य देने से नहीं चूकते थे। वे कहा करते थे,‘देश क्या आजाद हुआ, लोग अपने मौलिक कर्तव्य से भी आजाद हो गये। सभी स्तर पर कार्य-शैली का ह्रास हो गया। कोई विभाग अछूता नहीं रहा।‘‘ मैं उस समय नाना जी के मन्तव्य का तात्पर्य नहीं समझ सका, लेकिन जब बड़ा हुआ तो परत दर परत सारी बातें समझ में आने लगीं।

दाखिला के लिये शुक्रवार का दिन तय किया गया। मामी जी ‘सन्तोषी माता’ का व्रत प्रत्येक शुक्रवार को करती थी। उन्होंने नाना जी को मेरे दाखिला के लिये सुझाव दिया तो नाना जी काट नहीं सके। नाना जी मुझे छठे वर्ग में भारती विद्यापीठ में दाखिला करवाकर मुझे वर्ग में छोड़ गये। मैं घंटों अपने सहपाठियों के लिये एक कौतुहल का विषय बना रहा। मेरा सिर मुंड़ा हुआ था और इसके पीछे एक झाड़दार चुड़की (शिखा) लटक रही थी। लड़कों के साथ-साथ लड़कियाँ भी मुझे बेलमुण्डा कहकर चिढ़ाने लगी। कक्षा के कुछ उदण्ड लड़के तो मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गये। वे तो मेरी चुड़की के साथ छेड़छाड़ भी करना शुरू कर दिये। मैं उनसे बचने के लिये घिरनी की तरह चक्कर काट रहा था कि एक लड़की से मेरी टक्कर हो गई। हम दोनों जमीन पर गिर पड़े। मैं अपनी चुड़की हथैली में थामते हुये उठा और वह लड़की भी साथ-साथ उठकर खड़ी हो गई।

उसने मुझसे मुखातिब होते ही सवाल किया ‘‘तुम्हीं गाँव से आये हो और आज दाखिला लिया है न ? मैं कहती हूँ कि अपनी शिखा से हाथ हटा लो, अब से तुम्हे कोई तंग नहीं करेगा, न ही फब्तियाँ कसेगा। मैं तुम्हारे क्लास की मोनिटर हूँ, मोनिटर विभा शर्मा। यदि कोई तंग करे या ताना मारे तो मुझे बताना, मैं उसकी बैंड बजा दूँगी।‘

मैं आशंकित था कि टक्कर मारने के जुर्म में वह मुझे डाँट पिलायेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह तो मेरे ही संरक्षण की बात पर उतर आई। मेरे कपड़े पर धूल लगी थी। मैंने उसे अच्छी तरह झाड़े और हाथ-मुँह धोकर सीधे क्लास में चला गया। वर्ग शिक्षक ने मेरा नाम पूछा और बाकी विद्यार्थियों से मेरा परिचय करवाये। उन्होंने स्कूल के नियम व कायदे के बारे में भी मुझे संक्षेप में बतलाये। उन्होंने मुझे सीख दी, ‘‘गाँव से शहर पढ़ने-लिखने के लिये आये हो। अपने माता-पिता के उम्मीदों पर खरे उतरना। पढ़ाई- लिखाई में अब्बल आना। यही लड़के जो तुम पर हँसते हैं, तुम्हारी खिल्ली उडाते हैं, कल वे ही तुम्हारा गुणगान करेंगे।‘‘

शिक्षक ने अपनी आखिरी सीख मुझे दी जिसे मैंने गाँठ में बाँध ली और पालन करने में किसी प्रकार की कोताही नहीं की । सच तो यह है कि विभा मेरे भोलेपन पर तरस खाती थी और यही वजह थी कि वह हमेशा मेरे बचाव में आगे बढ़कर उदण्डों से लोहा लेती थी।

हफ्ते दो हफ्ते में ही बाल बढ़ गये। मैंने  डर के या तंग आकर शिखा कटवाना उचित नहीं समझा क्योंकि यह हमारी परम्परा का प्रतीक था। दूसरी वजह यह थी कि यदि मैं कटवा ही देता तो लड़के समझ जाते कि मैंने उनसे डरकर शिखा कटवा दी है। हो सकता था कि वे मुझे डरपोक या दब्बू समझ बैठते।

ऐसे भी किसी अन्याय को अंगीकार करने से अच्छा उनका प्रतिकार करना है , यही वसूल है, यही धर्म है अन्यथा अन्यायी निर्दोष पर हावी होते चले जायेंगे। मैं प्रत्यक्ष, या परोक्ष रूप से इन उदण्डों को सबक सिखाना चाहता था।

पाँच-छः महीनों में तो मेरे बाल पूरी तरह उग आये और इन बालों के बीच मेरी शिखा भी लुप्त हो गई। अर्धवार्षिक परीक्षा में वर्ग में मेरी पाँचवी पोजिसन आई तो उदण्ड लड़के स्वतः शान्त हो गये। धीरे-धीरे साथियों से मेरी जान-पहचान बढ़ी – पारस्परिक अपनत्व सृजित हुआ। हम इतने घूल-मिल गये कि पुरानी घटनायें वाष्प बनकर वातावरण में विलिन हो गई।

मैं गाँव से माँ-बाप, भाई-बहन को छोड़कर शहर आया था। इसलिये मैने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि मुझे कुछ करके दिखाना है। मैंने जी तोड़ मेहनत की और वार्षिक परीक्षा में अपनी कक्षा में द्वितीय स्थान लाया। विभा पहले की तरह इसबार भी वर्ग में प्रथम हुई।

एक ओर जहाँ विभा को मेरे द्वितीय होने की खुशी थी, वहीं दूसरी ओर मुझे इस बात का गम था कि अथक परिश्रम करने के बावजूद मैं वर्ग में प्रथम न आ सका।

लेकिन जो भी हो, सहपाठियों के दिल व दिमाग में एक बात घर कर गई थी कि मैं गाँव से शहर वास्तव में पढ़ने के लिये ही आया हूँ . मेरा द्वितीय होना इस अवधारणा को सच साबित कर दिया था। अतः लड़के अब उतने छेड़-छाड़ नहीं करते थे। जो मेरे आलोचक थे, वे अब मेरे प्रशंसक बन गये थे।

सातवीं कक्षा में मैने गणित पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया। विभा ने भी मेरी मदद की। वह मैथ टीचर से ट्यूसन पढ़ती थी। उसने सारे महत्वपूर्ण नोट्स मुझे दे दिये।

उसने मुझे नियमित अभ्यास करने की भी सलाह दी। मैने प्रयास एवं परिश्रम में कोई कोताही नहीं की फिर भी मेरा आत्मविश्वास डगमगा रहा था। मुझे अपने आप पर भरोसा नहीं हो रहा था कि मैं शत् प्रतिशत अंक मैथ में ला पाऊँगा। वहीं विभा सौ प्रतिशत अंक उठाने की बात बड़ी ही सहजता से करती थी।

वार्षिक परीक्षा खत्म होने के बाद सप्ताह भर के लिये अवकास की घोषणा कर दी गई।

परीक्षाफल घोषित होने की भी तिथि सामने आ गई। दुर्भाग्यवश मैं उस दिन विद्यालय नहीं जा सका क्योंकि नाना जी की तबियत अचानक खराब हो गई थी और उन्हे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था। पता लगाते-लगाते विभा अस्पताल पहुँच गई और मुझे ढूँढ़ निकाली। साथ में उसकी सहेली शालिनी भी थी। मुखातिब होते ही उसने वर्ग में प्रथम होने पर बधाई दी। मुझे तो अपने आप पर यकीन नही नहीं हो रहा था। लेकिन जब शालिनी ने भी आगे बढ़कर बधाई दी तो मेरा शक यकीन में बदल गया। मैंने उन्हें मिठाईयाँ खिलाई। मैं विभा को उसकी कार तक छोड़ने गया। उसने सीट से दो बन्डल निकालकर थमा दी। मैंने उत्सुकतावश पूछ बैठा,‘‘इसमें क्या है ?‘‘

उसने बड़ी ही स्वाभाविकता से जवाब दिया, “कक्षा सात की सारी पुस्तकें एवं कांपियाँ है, तुम्हारे लिये, समझो उपहार मेरी ओर से प्रथम होने की खुशी में। किताबें मिल रही थी, सोचा खाली हाथ क्या जाऊँ बधाईयाँ देने, इसलिए ले ली इन्हें। जरा सोचो तो इससे बेहतर उपहार तुम्हारे लिये क्या हो सकता है ?”

मैं तो हक्का-बक्का रह गया। समझ में नही आ रहा था कि किस प्रकार से धन्यवाद ज्ञापन करूँ।

शालिनी से रहा नहीं गया। उसने आदतन अपने मन्तव्य दे डाले.  ‘‘प्रशान्त, विभा तुम्हारी बहुत ख्याल रखती है इन दिनों, क्यों ?”

मैंने मौन रहना ही बेहतर समझा। लेकिन विभा को बुरा लगा। विभा अपनी नाराजदगी प्रकट करना चाहती थी, परन्तु मैं बीच में ही टपक पड़ा,

“यदि शालिनी यह कहकर खुशी का अनुभव करती है, तो हमें उसके इस मन्तव्य पर नाराज नहीं होना चाहिये।”

शालिनी मेरी इस बात से झेंप सी गई। उसके चेहरे पर लज्जा का भाव साफ झलक रहा था।

मुझसे रहा नहीं गया तो पूछ बैठा, ‘‘और तुम्हारी ?”

उसने सहजता से उत्तर दिया,‘‘ मैं तो कल ले लूँगी।‘‘

मैं कुछ बोल पाता कि वह हाथ हिलाते हुये शालिनी के साथ चल दी।

नाना जी को डिहायड्रेसन हो जाने से पानी चढ़ाया जा रहा था। पाँच बोतल चढ़ाये जा चुके थे। मैं जब वार्ड में घुसा तो देखा मामी जी चम्मच से एलेक्ट्रोल का घोल नाना जी को पिला रही है। मुझे देखते ही उनका पारा गर्म हो गया। उसने बड़ी ही बेरूखी से सवाल कर दिये, ‘‘कहाँ चले गये थे छोड़कर मटरगस्ती करने‘।

मैंने तपाक से जवाब दिया, ‘‘पानी चढ़ रहा था नर्स की देख-रेख में। इसलिये मैंने उनसे कहकर दो-चार मिनटों के लिये चाय की दूकान पर चला गया था।‘‘

‘‘मैं सब कुछ समझती हूँ। शहर में पाँव क्या रखे, पर लग गये – लगे उड़ने और वो भी अपनी मामी से जो हर उड़ती चिडि़या पर नजर रखती है। वो दो छोकडि़याँ कौन थीं जिनसे घुल-मिलकर चिकनी-चुपड़ी बातें कर रहे थे ?‘‘

मामी जी ने मुझे एक शेरनी की तरह घूरते हुये जवाब-तलब कर डाली। उसने शायद हमें देख लिया था इसलिये बहस करना मूर्खता थी। चुप रहना भी उचित नहीं था, इसलिए साफ-साफ सही बता दिया . आज हमारी परीक्षा का परिणाम प्रकाशित हुआ है। मैं अपनी कक्षा में प्रथम आया हूँ, यही बताने दोनों लड़कियाँ यहाँ मेरे पास आई हुई थीं। ये दोनो मेरी ही कक्षा में पढ़ती है और पास ही विश्रान्तबाड़ी में रहती हैं।

“समझ गई और दलील देने की कोई जरूरत नहीं है। पानी हटा दिया गया है, चल बैठ, नाना जी के सिरहाने और आहिस्ता-आहिस्ता चम्मच से घोल पिलाया कर। अब इधर -उधर हिलना भी नहीं है, न ही छोड़कर जाना है। चाय पीने की ईच्छा करे तो यहीं पर वार्ड बॉय से कहकर मंगवा लेना।”

इतनी ही देर में अप्रत्याशित सवालों का जवाब देते-देते मेरा पसीना छूटने लगा था। गनीमत थी कि किताबों के दोनों बन्डल चाय की दूकान पर ही छोड़ आया था। यदि उन्हें साथ ले आता और मामी देख लेती तो पता नहीं कि मैं मामी के तीखे प्रहारों का सामना कर पाता कि नहीं। साई जो करते हैं, सब अच्छा ही करते हैं। मैंने मन ही मन साई बाबा को धन्यवाद दिया सुबुद्धि देने के लिये।

‘‘टिफिन – बोक्स में रोटी और आचार है। भूख लगने पर खा लेना। ये दो रूपये पाकिट में रख लो, चाय पीने की तलब हो तो मंगवाकर पी लेना। कल छुट्टी होगी। अभी से कल सुबह तक तुम्हें यहीं रहना है और रिलीज करवा कर नाना जी को घर ले आना है।‘‘ मामी जी हुक्म जारी कर बैग उठाई और चल दी।

मैं खून का घूँट पीकर रह गया। मैंने छत की ओर नजर उठाकर साई से विनती की, ‘‘साई, मामी जी को एक बच्चा दे देते, तेरे घर में किस चीज की कमी है। तब मामी जी दूसरों के बच्चों के दुःख-दर्द को समझ पाती और उनके साथ सदा सद्व्यवहार करती।”

सच पुछिये तो नारी की संपूर्णता उसके माँ बनने में ही है। सात साल शादी के हो जाने के बावजूद मामी जी की गोद नहीं भर पाई थी। घर के ही नहीं बल्कि आस-पड़ोस के लोग भी जब तब किसी न किसी रूप में ताना मारा करते थे। इस विषय को लेकर जब पड़ोसियों का प्रहार मामी जी पर कभी-कभार होता था तो उनका चेहरा लटक जाता था ।  पड़ोस में काकी माँ चुटकी लेने में नहीं चुकती थी। एक बार तो उसने नाना जी के सामने ही फब्तियाँ कस डाली ‘‘शेखर केवल टूर पर ही रहता है कि कभी घर भी सोने के लिये आता है?‘‘ मामी सब कुछ ऐसे अवसरों में बर्दास्त कर लेती थी।

दूसरे दिन नाना जी को अस्पताल से छुट्टी दिलवाकर घर ले आया। मैं घर के कामों में इतना व्यस्त रहा कि उस दिन भी मैं विद्यालय नहीं जा सका।

मैं नित्य की भांति समय पर वर्ग में जाकर बैठ गया। सहपाठियों ने मुझे बधाईयाँ दीं। विभा और शालिनी भी पीछे नहीं रहीं। बर्ग शिक्षक घूसते ही मुझे बधाई दी और उदण्ड बच्चों की ओर इशारा करते हुये अपनी बात रखी ‘‘यही फर्क होता है ग्रामीण एवं शहरी बच्चों में। कड़ी मेहनत, दृढ़ संकल्प और नियमित अध्ययन के बलबूते प्रशान्त ने वो कर दिखाया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। सभी पीछड़ गये यहाँ तक कि विभा भी।”

उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और सस्नेह मेरी पीठ थपथपा दी। उस दिन से मेरी जिम्मेदारी दुगुनी हो गई। मैं और अधिक लगन व निष्ठां से पढ़ने लगा। फलस्वरूप मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

बड़े दिन की छुट्टी के पहले विद्यालय की ओर से पिकनिक में जाने का प्रोग्राम रखा गया। हमलोग सुबह ही बस-स्टॉप पर जमा हो गये और खण्डाला नौ बजे तक पहुँच गये। खण्डाला पूणे-मुम्बई हाई मार्ग पर अवस्थित एक रमणीय स्थल है। मुम्बई एवं दूर-दराज शहरों से लोग यहाँ घूमने आते रहते हैं। हनीमून के लिये तो यह स्थान उपयुक्त माना जाता है। दिन चढ़ने के बावजूद भगवान भास्कर निस्तेज थे। बादलों ने अपने आगोश में उन्हें थामकर रखा था। हवा में काफी ठंड थी। हाथ-पाँव काँप रहे थे। आग जलाई गई थी और हमलोग अपने-अपने हाथ सेंक रहे थे।

जलपान करने के पश्चात् हमलोगों को घूमने के लिये दो-दो घंटे का समय दिया गया। हमलोग अपने कम्प्यूटर टीचर मिसेज जडेजा के साथ घूमने निकल गये । हम कई टुकडि़यों में बंट गये और अपने-अपने मित्रों के साथ निकल पड़े। मैं और विभा तेज कदमों से कुछ दूर निकल गये। थककर एक बड़े चट्टान पर सुस्ताने बैठ गये।कुछ देर तक हम अनजान सा बैठे रहे। विभा ने ही बात शुरू की ‘‘कुछ महीनों बाद हम एक-दूसरे से अलग हो जायेंगे। मुझे मुम्बई के सेंटजेवियर कालेज  में दाखिला लेनी है। और तुम्हें ?‘‘

“मुझे तो पूणे में ही पढ़ना है। कोई कहाँ पढ़ता है उतना महत्पूर्ण नहीं होता जितना वह कैसे पढ़ता है। मुझे विश्वास है कि मैं पूणे में रहकर बेहतर करूँगा। तुम मेरी स्थिति से वाकिफ हो, फिर क्यों पूछती हो ये सब बातें ?” मैंने  अपना मन्तव्य दिया।

“मैं चाहती हूँ कि तुम पी0सी0एम0 लेकर टेन प्लस टू करो और आई0आई0टी0 की प्रवेश परीक्षा में बैठो। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम सफल हो जाओगे और भविष्य में एक कुशल अभियन्ता बन जाओगे।” विभा ने मुझे सलाह दे डाली।

मैंने बात को आगे बढ़ाई ‘‘मुझे स्वयं नहीं मालूम कि मैं क्या बनूगाँ या क्या नहीं। लेकिन एक बात निश्चित है कि मैं वहीं पढूगाँ जिससे मुझे सुख-चैन मिले और सन्तुष्टि भी हो। साथ ही साथ समाज के लिये भी हितकर हो। रंग-बिरंगी दुनियाँ के भँवरजाल में फँसकर मैं अपना अनमोल जीवन नष्ट नहीं करना चाहता। इसलिये मेरी दिली ख्वाहिश है कि मैं आगे चलकर एक शिक्षक बनूँ और वहीं से सैंकड़ों अभियन्ता, चिकित्सक सृजित करूँ। मेरे विचार में इससे बेहतर काम मेरे लिये कोई हो ही नहीं सकता। वैसे भी अध्यापन बड़ा ही सात्विक कार्य है। इस पेशे की किसी दूसरे पेशे से तुलना नहीं की जा सकती।”

“साई के दो अनमोल वचन हैं- सबुरी और श्रद्धा जो मेरे जेहन मे घर कर गई हैं। साई मेरे सपने में आते हैं और मुझे मार्गनिर्देशित करते रहते हैं। मैं दिकभ्रन्त नहीं हो सकता।” मेरी बातों में इतना वजन था कि विभा को विवाद करने की कोई जगह नहीं मिली। वह बड़ी तन्मयतापूर्वक मेरी बात सुनती रही। मैंने पाया कि इन चन्द दिनों में विभा में आमूल परिवर्तन हो गया है।

उठते-उठते उसने अपने विचार व्यक्त किये, ‘‘आज ही मुझे तुम्हारा असली रूप का पता चला। तुम जिनियस ही नहीं बल्कि……………….।

समय काफी बित चुका था। हमलोग द्रुतगति से कैंप में लौट आये। पत्तल में लंच परोसा जा रहा था। हमलोग शालिनी के बगल में बैठ गये। शालिनी ने धीरे से मेरे हाथ में चिकुटी काटी जिसका मतलब था कि हमलोग इतनी देर कहाँ रह गये थे और इतनी देर से क्या कर रहे थे। मैंने भी चिकुटी का जवाब चिकुटी से दिया कि अभी चुप ही रहो तो अच्छा है – ऐसे ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है। मैंने विभा के चेहरे की ओर गौर करने का ईशारा किया। शालिनी बहुत ही चतुर निकली। वह क्षणभर में ही समझ गई कि कोई सिरियस टापिक  पर हमारी बात हुई है और विभा इससे मर्माहत है।

अकेले घर में लोग कम खाते है, लेकिन बाहर में दो-चार साथियों के साथ खाना हो तो स्पर्धा में लोग ज्यादा ही खा लेते हैं। यही बात हमारे साथ भी हुई। ऐसे हम थके भी थे , इसलिये भूख भी जबरदस्त लगी हुई थी। हमने खा-पीकर राहत की सांस ली और ग्रुप में घुमने निकल गये। रास्ते में कई नई जोडि़यों को चुहलबाजी करते हुये हमने पाया। दूसरे ग्रुप में जो लड़कियाँ थीं , वे उन्हें इस तरह बेपर्दा हंसी-ठठ्ठा करते हुये देख नजरे फेर लीं। उनके कपोलों पर लज्जा का रक्तरंजित भाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था।

‘‘खुलेआम मस्ती कर रहे हैं लोग, शर्म भी नही आती‘‘ शालिनी ने अपनी बात रखी।

“जब तुम भी इस उम्र की दहलीज पर पहुँच जाओगी तो तुम भी…………।‘‘ मैंने अपना अनुभव शेयर किया।

‘‘एक ही नहीं,बल्कि दोनों की सहमति से ही इस प्रकार का माहौल बनता है। मैं तो कहूँगी कि यह उम्र का तकाजा है और कुछ नहीं। ऐसे भी एकान्त में सुसुप्त उत्तेजना जीवंत हो उठती है.  उन पर किसी का जोर नहीं होता।‘‘ विभा ने अपनी बात रखी |

‘‘मैं तो कहूँगी यह पागलपन है और कुछ नहीं। कि असभ्यो ! ‘‘शालिनी ने अपनी नाराजदगी जाहिर की।

हमने विषय के रूख को मोड़ा और एक विशाल चट्टान पर सुस्ताने बैठ गये। देखा चट्टान के सीने को प्रेमियों ने अपनी-अपनी इबारत लिखकर लहु-लुहान कर दिये थे। एक जगह लिखा हुआ था‘‘ आई लव यू, सरिता।‘‘ दूसरी जगह ‘‘माई डार्लिंग मोना‘‘ इत्यादि। ऐसा लगा कि लव के सिवा संसार में और कोई दूसरी चीज है ही नहीं।

शालिनी ने एक नुकीला पत्थर का टुकड़ा मेरी ओर बढ़ाते हुये बड़ी ही सहजता से चुटकी ली ‘‘ प्रशान्त, लो तुम भी कुछ लिख दो इस चट्टान पर।”

मैंने उसके व्यंग्य को पहले से ही भांप लिया था कि उसकी मंशा क्या है। ‘‘वो तो मैंने (कमीज की बटन खोलते हुये और सीने को दिखाते हुये) कब का अपने दिल में लिख रखा है, पत्थर पर लिखने की जरूरत मैं नहीं समझता। फिर भी यदि तुम कहती हो तो चलो लिख देता हूँ।

‘‘यू नाँटी बॉय !  सम्बोधित करते हुये उसने एक दूसरे पत्थर से मुझे दे मारा। मैं सर्तक था, इसलिये गर्दन झुका ली। मैं लिखने बैठ गया और ‘आई लव यू’ तक तो सहजता से लिख डाला। यहाँ तक न तो शालिनी ने ओर न ही विभा ने कोई आपत्ति जताई .  उसके बाद कौन सा लेटर लिखना शुरू करता हूँ, यह मायने रखती थी। वी अक्षर से विभा का नाम और एस से शालिनी का नाम शुरू होता था। मुझे तो शालिनी को चिढ़ाना था, इसलिये एस लेटर लिखना जैसे ही शुरू किया वह बिगड़ कर भूतिनी हो गई और मेरे उपर मुक्कों से प्रहार करने लगी। विभा ने शालिनी को पकड़ लिया और समझाने लगी। उसने शालिनी को यह कहकर शांत किया कि मैंने उसे महज चिढ़ाने के ख्याल से एस लिखना शुरू किया था। विभा ने अपनी दलील दी, ‘‘शालिनी, प्रशान्त तुम्हारी बहुत इज्जत करता है, तुम्हारे बारे वह कभी भी गलत नहीं सोच सकता।

विभा के समझाने से शालिनी शांत हो गई। फिर हमलोग मिलकर अन्तराक्षरी खेलने बैठ गये। फिल्मी गानो का दौर ज्यादा और कविता, दोहा भजनादि की पंक्तियाँ तुलनात्मक कम। एक स्थान पर मुझे बोलना था। बस क्या था मैं शालिनी की ओर मुखातिब होकर गाने के बोल शुरू कर दिये ‘‘हमने तुझको प्यार किया है जितना, कौन करेगा इतना।‘‘

‘ना’ अन्तिम अक्षर सुनना था कि शालिनी मेंढ़क की तरह उछल पड़ी और गाने लगी, ‘‘ना, ना करके प्यार तुझी से कर बैठे, करना था इनकार , मगर इकरार तुझी से कर बैठे।‘‘

विभा ने आग में घी डालने का काम किया ‘वेलडन, वेलडन। अब प्रशान्त ‘ठ’ पर बोले,क्यों शालिनी, बहुत कठिन है। ‘ठ’ पर नोर्मली कोई गाना या भजनादि की पंक्ति नहीं मिलती।

गाने के बोल के भाव जब शालिनी की समझ में आई तो वह सकपका गई और लज्जा में छुई-मुई सी हो गई। विभा ने बिगड़ते वातावरण को सम्हाला अब ‘ठ’ पर बोलो, प्रशान्त या हार मान लो शालिनी से। मैंने साई बाबा का स्मरण किया तो मुझे नानी जी का भजन ख्याल आ गया जो वह रोज गाती रहती थी।

‘‘ठुमक चलत रामचन्दª, बाजत पैजनिया।‘‘ मेरा इतना बोलना था कि शालिनी का मुँह लटक गया।

खेल अब ड्रा हो गया। न तुम जीते प्रशान्त, न ही शालिनी।

पश्चिम तरफ क्षितिज में लालिमा छाने लगी थी। पक्षी अपने-अपने घोसलों की ओर जाने लगे थे। ठंड भी बढ़ने लगी थी। हम धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे और कैम्प में चले आये। देखा सभी लड़को एवं लड़कियों की गिनती शुरू हो गई थीं। हमारा नाम पुकारा जा रहा था। हमने अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। बहादुर चाय-बिस्कीट बाँट रहा था। हवा तेज बह रही थी। विभा एवं शालिनी ने अपने-अपने शाल निकाले और ओढ़ लिये। मैंने भी बैग से जैकेट निकाला और पहन लिया। हाजिरी हो जाने के बाद हम सभी बस में सवार हो गये।

जैसा कि इस उम्र में बच्चे-बच्चियाँ उधम मचाते हैं, ऐसे अवसरों में, हम भी वैसा उधम मचाते हुये मुख्य मार्ग तक आये। चालक चालाक निकला। उसने बोडी लाईट बुझा दी थी और गाड़ी की स्पीड तेज कर दी थी। हम उच्च मार्ग में चल रहे थे। बस के अन्दर पुरा अंधेरा था। हम सभी साँस रोके चुपचाप बैठे थे। खिड़कियाँ पहले से ही बन्द कर दी गई थीं ताकि बाहर की ठंड हवा भीतर प्रवेश न कर सके। आखिरकार हम अपने-अपने नजदीक के बस-पड़ाव पर रात्रि के नौ-दस के लगभग उतर गये।

मुझे मलाल इस बात का कतई नहीं था कि मैं और विभा घंटो एक-दूसरों के आस-पास रहे महज नजरों से ही एक दूसरे को तलाशते रहे-कोई दिल की बात भी नहीं हो सकी। मेरा मन करता था कि विभा की उंगुलियों में अपनी उंगुलियां फंसाकर उसे तृप्त कर दूँ , लेकिन मैं क्षणिक सुख का कायल नहीं था. मैंने मन पर काबू रखना ही उचित समझा. दूसरी बात प्यार व मोहब्बत ही सबकुछ नहीं होता , उनसे उपर भी कुछ होता है जिसे हासिल करना पड़ता है। यह सोच मुझे दिकभ्रन्त होने से सदैव रोकता रहा। आज भी मेरे साथ वही बात हुई।

समय बीतता गया और मैं नब्बे प्रतिशत अंक से माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की। विभा और शालिनी मुंबई के किसी महाविद्यालय में पढ़ने चली गईं। मैंने पूणे विश्वविद्यालय में दाखिला लिया ओर वहीं से एम0एस0सी0 मैथ में किया। मैथ पढ़ने का तत्काल लाभ मुझे मिला। कुछलड़कों को ट्यूसन पढ़ाकर दो-तीन हजार रूपये की मासिक आय होने लगी। मजे से मेरा खर्च चल जाता था तथा पर्व-त्यौहार में कुछ रूपये माँ को भी भेज दिया करता था। एक तो मैं अपना खर्च स्वयं चला लेता था तथा दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि अपनी आय से दो पैसे बचाकर समय-समय पर घर भेज दिया करता था। पर्व व त्योहार में घर जाने पर परिवार के लोग मुझे सर पर उठा लेते थे।

महाविद्यालय में मेरी फीस माफ थी तथा स्कोलरशीप भी मिलती थी। किताबें खरीदने की भी जरूरत नहीं थी क्योंकि मुझे पुस्तकालय से सभी किताबें आसानी से मिल जाया करती थीं। प्रोफेसर लोग मुझे बेहद प्यार करते थे तथा जब भी असुविधा होती थी, वे मेरी मदद करने में पीछे नहीं हटते थे। एक प्रोफेसर के लड़के को मैं पढ़ाता था। वह एन0डी0ए0 में चुन लिया गया था। प्रो0 साहब ने उसकी बाई-साईकल मुझे दे दी थी। मेरा निवास स्थान विश्वविद्यालय से पाँच किलोमीटर दूर अवस्थित था और अक्सर मैं पैदल ही आया करता था। मैं बचपन से ही पैदल चलने का अभ्यस्त था। रेलवे-स्टेशन मेरे गाँव से तीन कोस दूर था। जब भी स्टेशन पर रात-बेरात मैं उतरता था, मैं सवारी का इन्तजार नहीं करता था। पैदल ही गाँव चल दिया करता था। दो-चार आदमी साथ होने पर तो रास्ता सहज में ही कट जाता था।

प्रो0 पवार जो गणित विभाग के विभागाध्यक्ष थे, ने मुझे आई0एस0एस0 की परीक्षा में बैठने की सलाह दी। लेकिन बचपन से ही मेरा झुकाव शिक्षक बनने का था। इसलिये मैंने उन्हें स्पष्ट करते हुये जवाब दे दिया, ‘‘सर, आज के माहौल में एक आई0एस0एस0 की व्यक्तिगत जिन्दगी एक सामान्य शिक्षक की जिन्दगी से बेहतर नहीं होती। सुना है आप के कई रिस्तेदार आई0एस0एस0 अफसर हैं। आप अपनी निजी जिन्दगी से उनकी जिन्दगी की तुलना करेंगे तो पायेंगे कि कौन ज्यादा सुख-शांति में हैं – आप या वे ?

प्रो0 पवार को मेरे से ऐसे सटीक उत्तर की उम्मीद नहीं थीं। वे मेरी दलील सुनकर हतप्रभ रह गये। उन्हें कोई और  बात कहने की जरूरत नहीं पड़ी। समझदार थे और दुनिया देखी थी.

मैंने पुनः अपनी बात रखी, सर, धन साधन है, साध्य नहीं। यह मेरी दूसरी करारी चोट थी। वे मेरा कहने का तात्पर्य समझ गये और फिर कभी इस विषय में मुझसे चर्चा करना मुनासिब नहीं समझे। मैंने भी इस बात को अपने दिल व दिमाग से निकाल दिया।

जब एम0एस0सी0 की परीक्षा-फल प्रकाशित हुआ तो पता चला कि मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया हूँ। शिक्षकों ने मुझे पी0एच0डी0 करने की परामर्श दे डाली जिसे मजबूरन मुझे नकार देना पड़ा। मुझे एक स्थायी नौकरी की आवश्यकता थी। मैं तीन भाईयों और दो बहनों में सबसे बड़ा था। पुस्तैनी मकान की अवस्था जर्जर थी। उसे बनवाना अति आवश्यक था। पिता जी ने एक दो बार इस ओर मेरा ध्यान भी आकर्षित किया था।

मैंने भवन कालेज में लेक्चरर के लिये आवेदन किया तो मेरा सेलेक्सन शीघ्र ही हो गया और मैंने अपनी ड्यूटी भी जोयन कर ली। मुम्बई मेरे लिये नई जगह नहीं थी। पूणे में रहने के कारण जब तब दोस्तों के साथ मैं घूमने चला जाता था।

मुम्बई की एक अलग ही अपनी पहचान हैं। यहाँ जो बस गये, वे दूसरी जगह जाना पसन्द नहीं करते। यहाँ जो एक बार आ गये, वे यहीं के होकर रह गये। यहाँ की जलवायु, यहाँ के लोग, यहाँ के रख-रखाव, सुख-सुविधा अपने-आप में एक अनोखी मिशाल है। मैंने पहली बार मुम्बई देखा तो मेरे मन में यहाँ नौकरी करने तथा यहाँ रस-बस जाने की ईच्छा बलवती हो गई। मेरे लिये तो मुम्बई आन्तरिक आकर्षण का केन्द बिन्दु रहा। यही वजह थी कि मैंने नौकरी भी तलाशी तो मुम्बई में ही।

नौकरी करते हुये चार-पाँच महीने गुजर गये। विभा एवं शालिनी के बारे में जानने की जिज्ञाषा बनी रहती थी। हम एक दूसरे के काफी करीब जो थे।

एक दिन मैं बाईक स्टैण्ड में रखकर मुड़ा ही था कि सामने से शालिनी आती हुई दिखलाई पड़ी। उसने मुझे विभा के रिंग सेरिमनी के निमंत्रण कार्ड दिये और यह भी बता दी कि विभा ने मुझे आने के लिये अपनी जान की कसम दी हैं। मैं शालिनी को लेकर कैंटिन में चला गया। शालिनी ने बतलाया कि कोई लड़का टी0एस0 राजेन्द्रा से मेरिन इंजीनियरिंग करने के पश्चात् किसी आस्ट्रेलियन शीप में सहायक कप्तान है। अच्छी पगार है। उपर से रहना- खाना फ्री।

अब मुझे मालुम हुआ कि मुझे इंजीनियरिंग पढ़ने के लिये विभा इतनी जोर क्यों देती थी।

‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि मैं इस कालेज में पढ़ाता हूँ?’’ मैंने शालिनी से पूछा ।

वह ऐसे कि जिस स्कूल में मैं साईंस टीचर हूँ, वहीं की एक छात्रा कोमल राठौर की बहन मृदुला राठौर तुम्हारे कालेज  की छात्रा है। मेरा कोमल के घर आना-जाना होता है। उसी ने खबर दी कि कोई प्रशान्त मिश्रा नामक मैथ के प्रोफेसर दीदी के कालेज में आये हैं। बहुत ही अच्छी तरह मैथ समझाते हैं और बड़े प्यार से बच्चों-बच्चियों को पढ़ाते हैं। मैंने मृदुला से पूछा तो बात सच निकली। फिर क्या था, ढ़ूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते यहाँ तक चली आयी और सौभाग्यवश तुम सामने ही मिल गये स्टैण्ड में। शालिनी ने आदतन सारी बातें एक ही सांस में व्यक्त कर दी.

विभा का क्या हुआ? मैंने सवाल किया। विभा सीए बनना चाहती थी। वह बी. कोम तो ठीक से पढ़ी। उसके बाद उसको उचाट हो गया।

‘वजह ?’ मैने पूछा।

‘‘वजह उसके पिता मिस्टर शर्मा उसकी शादी उससे वगैर पूछे पक्की कर चुके थे। और जल्द से जल्द शादी कर देना चाहते थे। उन्हें शक था कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो विभा कहीं और शादी रचा लेगी। इशारा तुम्हारी और है.शादी की इस बात को लेकर विभा एवं उनके पिता के बीच अनबन हो गई थी। बात इतनी बढ़ गई कि वे एक दूसरे को देखना भी नहीं चाहते थे। विभा ने तुमसे शादी करने की ईच्छा जताई थी , जो उनके पिता को मंजूर नहीं था। रग्घू काका ने भी विभा का साथ दिया था, लेकिन शर्मा साहब आखिर तक अपनी जिद पर अड़े रहे। शर्मा साहब कड़े मिजाज के सख्स थे। रूबाव तो उनके अंग – अंग  मे भरा हुआ था। शहर के रईस बिल्डरों में उनकी गिनती होती थी। पैसों की कोई कमी नहीं थी। जिन्दगी मौज व मस्ती में कट रही थी। दिनभर काम में व्यस्त रहते थे। रात ज्यादातर क्लबों एवं होटलों में कटती थी.  देर रात को घर लौटते थे। घर में उन्हें कोई टोकने वाला नहीं था। एक बूढ़ा नौकर था – रग्घू काका जो दिनभर खटने के बाद शाम ढ़लते ही घोड़े बेचकर सो जाता था।

विभा को तो पढ़ने-लिखने से ही फुर्सत नहीं थी , जल्द सो जाती थी और जल्द ही उठ जाती थी क्योंकि स्कूल जाने के लिये सुबह ही तैयार होना पड़ता था।

यही नहीं शर्मा साहब ने तुम्हारे बारे में बिना सोचे समझे अशोभनीय टिप्पणी कर दी थी जिससे विभा अन्दर से आहत होकर टूट-सी गई थी।

अन्ततोगत्वा विभा ने अपने भाग्य से समझौता कर लिया था और विरोध करना त्याग दी थी।

विभा रातभर अपनी माँ की तस्वीर के सामने रोती रही – बिलखती रही। कहीं घर से भाग कर न चली जाय, इसलिए शर्मा साहब ने घर के चारो तरफ पहरे बैठा दिये थे। बेडरूम में भी दो-दो महिलाओं की ड्यूटी लगा दी गई थी विभा की चैकीदारी करने में ताकि वह भावावेश में कुछ उल्टी-सीधी न कर बैठे।” घटना क्रम का संक्षिप्त विवरण शालिनी ने अश्रुपूरति नेत्रों से सुना दिया।

मुझे भी यह सब सुनकर आघात से ज्यादा आश्चर्य हुआ कि कोई पिता अपनी एकलौती बेटी के प्रति इस कदर बेरहम हो सकता है।

मैं प्रोग्राम के अनुसार होटल पार्क पहुँच गया। इसके सेन्ट्रल हाल में रिंग सेरिमनी का कार्यक्रम चल रहा था। ज्योंहि मैं हाल के मुख्य द्वार में दाखिल हुआ, विभा दौड़ी हुई मुझे रिसिव करने चली आई। शालिनी कुछ दूर पर अपने पति के साथ दिखलाई दी। परिचय का आदान – प्रदान हुआ। विभा ने अपने पति सुशांतो से मेरा परिचय करवाया।

हमलोग साथ-साथ स्टेज तक आये। शहर के गण्य-मान्य व्यक्तियों का हुजूम जैसे उमड़ पड़ा था। ज्यादातर अतिथि बिल्डर लोग ही थे जो शर्मा साहब के इर्द-गिर्द बातों में उलझे हुये थे। इधर विभा भी अपने सगे-सहेलियों के बीच व्यस्त दीख रही थी। हाल एवं स्टेज रंग-बिरंगे फूलों से सजाये गये थे। चारों तरफ सजावट की गई थी। मधिम  रोशनी में लोग ठंडे एवं गर्म पेय का लुत्फ उठा रहे थे। आर्केस्ट्रा पर कोई रोमांटिक गाने का धुन बज रहा था जो वातावरण को मादक बना रहा था।

दो कुर्सियाँ मंच पर सजा कर रखी गई थी। एक पर सुशांतो को बैठाया गया था तथा दूसरे पर विभा। घोषणा के साथ रस्म अदायगी शुरू हो गयी। पहले विभा ने सुशांतो को अंगूठी पहनाई और बाद में सुशांतो ने विभा को। तालियों की गड़गड़ाहट से केन्द्रीय कक्ष गूँजने लगा और एक-एक करके सभी लोग वर-वधू को आर्शीवाद देते रहे.  ग्रुप फोटो एवं विडियोग्राफी का दौर घंटो चलता रहा।

स्वरूची भोजन की व्यवस्था थी। कार्यक्रम एक तरफ चल रहा था तो दूसरी तरफ दूर दराज से आये मेहमानों को जल्द खा पीकर लौट जाने की जल्दबाजी थी। ऐसे लोग खाने- पीने के लिये अगली पंक्ति में जुट गये थे। मुझे भी मुंबई लौटने की जल्दबाजी थी। इसलिये मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया। शालिनी एवं उसके पति भी मेरे पीछे खड़े मिले। हमलोग साथ-साथ खाना खाये तथा साथ-साथ वोल्वो से मुम्बई लौट आये।

मुझे एक बात का एहसास हो गया था कि विभा इस रिश्ते से खुश नहीं है।

दूसरी बात जो मुझे खल गई वह यह थी कि शर्मा साहब मेरे पीछे हाथ-धोकर पड़े हुये थे और नहीं चाहते थे कि मैं विभा से घुल-मिलकर एकान्त में कुछ बातें करूँ। मैं विभा को बेहद चाहता था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मुझे उसके इस रिस्ते से ईष्र्या या जलन हो रही थी।

मेरी नौकरी लग जाने के बाद लड़की वाले मेरे नाना जी के पास पुणे तक आया करते थे। मेरा मन इस विषय में उदिग्न हो जाया करता था। इसलिए मैं कोई न कोई बहाना बनाकर विवाह टाल दिया करता था। नाना जी का इसी बीच देहान्त हो गया था और मामा जी का चेन्नई पोस्टिंग हो गई थी। वे सपरिवार वहीं चले गये थे। अब पूणे में मेरा अपना कहने वाला कोई नहीं था।

काकी माँ से पता चला कि मामी को एक बच्ची हुई है। मैं इस समाचार को सुनकर खुशी से विभोर हो गया मन में एक बात कौंध गई कि साई ने मेरी प्रार्थना सुन ली और मामी की सूनी गोद भर दी। मामी से मिलने तथा बच्ची को देखने की ईच्छा को मैं रोक नहीं सका। दूसरे ही महीने चेन्नई एक्सप्रेस से चल दिया। मामा जी एवं मामी बच्ची के साथ स्टेशन रिसीव करने आये हुये थे। मैं उतरते के साथ बच्ची को अपनी गोद में ले लिया। आज मामी के चेहरे पर पहली बार प्रसन्नता की आभा दिखलाई पड़ी। मामी ने मेरे प्रिय डीस-खीर-पुड़ी और आलूदम बनाकर घंटेभर में तैयार कर दी। हमलोग साथ-साथ बैठकर खाना खाये। एक सोने का चेन ले लिया था झबेरी बाजार से, मैंने बच्ची के गले में डाल दी तो मामी खुशी से बोल उठी,‘‘लल्ला, इसकी क्या जरूरत थी’’?

“मैं अब कमाता हूँ – दो पैसे अपने हाथ में बचते हैं – वो तो इन्हीं दिनों के लिये हैं।”

मैं मन ही मन साई के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहा था कि उसने मेरी विनती सुन ली और मामी की गोद भर दी – एक नन्हीं परी से। मामी ने मेरे लिये एक सूट के कपड़े खरीद दिये। मैंने भी मामा,मामी एवं बच्ची के लिये कपड़े खरीद दिये। दो दिन चेनैई मे रहने के बाद मैं मुम्बई लौट आया.

विदा करते समय देखा मामी की आँखें आँसूओं से भर गई है और बाहर निकलने के लिये बेताब है। ‘‘लल्ला मैंने तुम्हें बहुत दुःख दिया है।’ वह बोलते-बोलते रो पड़ी।

‘‘मामी, तुम्हारी डाँट-फटकार ने ही तो मुझे इस मंजिल तक पहुँचाया नही तो मैं कब का……………….।’

गार्ड ने सीटी दी और गाड़ी चल पड़ी। मामी वहीं बूत बनकर खड़ी रही और आँसू पोछती रही तबतक जबतक आँखों से मेरी वह ओझल न हो गई। सोचता हूँ ईश्वर ने इंसान के भीतर बुराई की अपेक्षा अच्छाई कूट-कूट भर दी है – हम बुराई को तो देखते हैं, लेकिन अच्छाईयों को नजर अन्दाज कर देते हैं। यदि हम बुराई को नजरअन्दाज कर उसकी अच्छाईयों को प्रोत्साहित करें तो एक-न एक दिन उसकी बुराई स्वतः लुप्त हो जायेगी।

फिर क्या था मैं एक आवारा-मसीहा की तरह जिन्दगी काटने लगा , लेकिन प्रत्येक महीने के अंत में पर्याप्त राशि घर भेज दिया करता था। पिता जी घर बनवाने में दिन – रात लगे हुये थे। भाई, बहनों की पढ़ाई अवाध गति से चल रही थी। बाल्यकाल में घर की जो दयनीय स्थिति मैंने देखी थी, वही मेरे जेहन में कौंधते रहती थी। सच पूछिये तो यह स्मृति मेरे लिये मार्गदर्शक का काम करती थी। मुझे कई बूरे साथियों की संगति में रहने का मौका मिला, लेकिन मैं उनसे हमेशा अपने आप को बचाता रहा। उनकी शोहबत का असर मेरे उपर किंचित मात्र भी नहीं पड़ा। ऐसे लड़के सिगरेट पीने के आदी थे। जब तब, जहाँ-तहाँ सिगरेट निकालकर जलाने लगते थे और कश लेते हुये इसके धुयें से छल्ले बनाते रहते थे। मेरे पर इन सबों का दबाव सिगरेट पीने के लिए हमेशा रहा, लेकिन मैंने दृढ़ता से उनकी बात ठुकरा दिया करता था। फिर दुबारा हिम्मत नहीं होती थी कि वे मुझे जबरन धुम्रपान के लिये विवश करें। सिगरेट के पाकिट पर ‘‘स्मोकिंग इज इन्जूरियस टू हेल्थ’’ लिखी हुयी चेतावनी को मैंने सदा गंभीरता से लिया और उस सन्देश का श्रद्धापूर्वक पालन किया। अधिकांश लोग इस संदेश को अनदेखी कर देते हैं और धुम्रपान करना गर्व की बात समझते हैं ,  लेकिन मैं उन लोगों की श्रेणी में आने की धृष्ठता कभी नहीं की। यही वजह थी कि मुझे आजतक किसी प्रकार की सांस सम्बन्धी बीमारी कभी नहीं हुई। मैं पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहा तो खेल के मैंदान में भी किसी से पीछे नहीं रहा।

एक वाकया का जिक्र करना प्रासंगिक है कि मेरे जिले का अन्तर विद्यालय मैच चल रहा था और टोस जीतकर मैं ओपनिंग करने के लिये गया और पहली ही गेन्द में छक्का मारने की लालच में बाउन्ड्री लाईन पर कैच कर लिया गया और मैं शून्य पर आउट हो गया। उस घटना को जब भी याद करता हूँ तो मुझे अपनी मूर्खता पर तरस आती है। मुझे शुरू में पीच पर जमना चाहिये था, जाते ही चैका या छक्का लगाने के भंवरजाल में नहीं फंसना चाहिये था। मेरा विद्यालय फायनल में पहुँचकर भी वह मैच हार गया था। मेरे आउट होते ही धड़ाधड़ विकेट गिरते गये क्योंकि कैप्टन के आउट हो जाने से खिलाडि़यों का मनोबल टूट-सा जाता है । ऐसे मौके में खिलाडि़यों पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी पड़ता है।

जब नाना जी को यह बात मालुम हुई तो उन्होंने मुझे हिम्मत दिलाई। उन्होंने पुराने दिनों की याद दिलाई और कहा कि क्रिकेट अनिश्चितता का खेल है . अच्छे खिलाड़ी भी पीट जाते हैं और जीता हुआ खेल भी कोई टीम हार जाता है। लेकिन सच्चा खिलाड़ी वही है , जो हिम्मत को बरकरार रखता है और दूने उत्साह के साथ मैदान में पुनः उतरता है और खेल की दिशा को मोड़ देता है। ऐसे ही एक खिलाड़ी हुये हैं हमारे देश में सुनील गावस्कर। जब सुनील गावस्कर पहली इनिग्स में शून्य पर आउट हो जाता था तो दूसरी इनिग्स मे बल्ला हवा में लहराते हुये पूरे जोश व खरोश के साथ मैदान में उतरता था और सेन्चूरी पीटकर ही दम लेता था। इसलिये मेरी सलाह है कि तुम आगामी वर्ष पुनः मैच में भाग लो। पूरे आत्मविश्वास एवं सूझ-बूझ से खेलो तो मुझे विश्वास है कि तुम फायनल मैच जितने में अवश्य कामयाब हो जाओगे।

नानाजी की बात मैंने गाँठ में बाँध ली। फलस्वरूप दूसरे वर्ष मैंने पहली ही इनिग्स में सेंचुरी पीटी और फायनल मैच भी आठ विकेट से जीते। पूरे खेल के दौरान नाना जी मैदान में डटे रहे और हमारी टीम की हौसला आफजाई करते रहे। जब मुझे ‘मैन आफ द मैच’ घोषित किया गया तो नाना जी खुशी से झूम उठे। मैंने उनके हाथों में ट्राफी थमा दी तो वे मुझे गले से लगा लिये और ढ़ेर सारे आशीर्वाद दिये। मैं जब भी इस घड़ी को याद करता हूँ तो रोमांचित हो उठता हूँ।

इस जीत से जिले भर में मेरे विद्यालय का नाम रौशन हुआ और मुझे जिला-स्तर पर भी पुरस्कृत किया गया।

सुशांतो के पिता जी मुंबई के दलाल-स्ट्रीट में शेयर का कारबार करते थे। उनका अच्छा खासा फ्लैट पवई के पोश एरिया में था। उन्होंने शेयर के उलट-फेर से लाखों रूपये बनाये थे और उसी कमाई से पवई में महंगे फ्लैट खरीदे थे। सुशांतो शादी में तीन महीने की छुट्टी लेकर आया था, लेकिन हफ्तेभर भी नहीं रूका। बहाने बनाकर काम पर लौट गया। विभा ने एक दो बार फोन किये , लेकिन फोन के आउटगोयिंग बन्द मिला। मन में शक पैदा हो गया कि शायद सुशांतो ने फोन नम्बर ही काटकर रख दिया हो या किसी दूसरे नम्बर को ले लिया हो।

एक दिन अचानक मुझे विभा बिग बाजार में मिल गई। उसकी आँखें सूजी हुई थीं। मेरी आँखों मे झाँकती हुई बोली, ’’सुना है तुमने अभी तक शादी नहीं की ? वेगाबाउन्ड की तरह इधर-उधर घूमते रहते हो।’

मैने प्रतिकार नहीं किया, मौन ही रहना उचित समझा। मैं अपने दिल की बात कैसे बताता कि मैं अब भी उससे प्यार करता हूँ और उसके सिवा किसी और से अब शादी करने की ईच्छा नहीं होती।

“जब तुम कहती हो, कर लूँगा, थोड़ा वक्त और चाहिये मुझे सोचने के लिये।”

उसने अपनी सूखी होठों पर कृत्रिम मुस्कान बिखेरती हुई अपने हाथ मेरे हाथ पर रख दी और बोली ‘‘प्रोमिज।’’

‘‘प्रोमिज’’ मैंने भी अपने हाथ उसके हाथ के उपर रखकर उसी लहजे में जवाब दिया।

विभा की खरीदारी खत्म हो चुकी थी। वह बोझिल कदमों से लिफ्ट की ओर जाने लगी। उसके न चाहने पर भी मैने बेग उसके हाथों से झपट लिये । हम दोनों साथ-साथ लिफ्ट में चढ़े। एक कोने में हम दुबक कर खड़े हो गये। आठ लोगों की कैपिसीटी थी लिफ्ट की, लेकिन दस ग्यारह लोग जबरन लद गये थे। सभी को जल्दबाजी थी नीचे उतरने की। किसी को नियम से कोई सरोकार नहीं था।

विभा का सानिध्य का एहसास मुझे खाये जा रहा था। अन्तर में उथल-पुथल हो रही थी। मेरी श्वांस भी तेज चलने लगी। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसके हाथ पकड़ लिये उसकी उँगलियाँ अपनी उँगलियों में फंसा ली। उसने महज नजर उठाकर मेरी ओर देखी, कोई प्रतिकार नहीं किया।

मैंने देखा कि उसके चेहरे पर जो खुशी लुप्त हो चुकी थी, बिजली की तरह पल-दो पल के लिये वापिस आ गई। मैं नीचे तक उसे छोड़ने गया ओर पवई के लिये एक टैक्सी कर दी। मेरी ईच्छा हुई कि मैं ड्राईवर को भाड़े भी दे दूँ, लेकिन यह सोचकर कि विभा बूरा मान जायेगी, मैने भाड़े देना मुनासिब नहीं समझा। वह मुड़-मुड़ कर मेरी तरफ देखती रही और अभिवादन में हाथ हिलाती रही तब तक जब तक वह मेरी नजरों से ओझल नहीं हो गई। मैं देर तक बुत बना वहीं खड़ा रहा – ख्यालों में खोया हुआ।

कई महीनों तक मुझे विभा का कोई समाचार नहीं मिला तो मेरी बेचैनी बढ़ गई। क्लास ओवर होते ही मैं शालिनी से मिलने उसका स्कूल चला गया। पता चला उस दिन वह छुट्टी पर है। उसकी शादी का सालगिरह था। चपरासी से उसके घर का पता लेकर उसी वक्त चल दिया। रास्ते में एक अच्छा सा उपहार पैक करवा लिया। टैक्सी ज्योंहि  उसके फ्लैट के सामने रूकी , वह मुझे बालकनी पर कपड़े उठाती हुई दिख पड़ी। मैंने नीचे से ही आवाज लगाई, शालिनी, मैं प्रशान्त। वह धड़धड़ाकर सीढि़याँ उतरती हुई मेरे पास आ गई और हाथ पकड़ कर घर ले गई।

मैं प्रोग्राम से दो घंटे पहले ही पहुँच गया था। ‘‘आज मेरी शादी का सालगिरह है, एक्सक्यूज मी, मैं तुम्हें आमंत्रित करना भूल गई।’ उसने बचाव में अपनी बात रखी।

‘‘कोई बात नहीं, कभी-कभी ऐसी गलती हो जाया करती है। अच्छा यह बतलाओ, विभा कैसी है ?’’ मैंने जानना चाहा।

पहले यह बतलाओ चाय लोगे कि कोई ठन्ढ़ा पेय?

चाय ही पिला दो तो बड़ी कृपा होगी।

इसमें कौन सी बड़ी बात है। कहती हुई वह किचेन में चली गई और शीघ्र ही दो कप चाय बनाकर लेती आई। एक कप मुझे पकड़ा दी और दूसरी स्वयं लेकर पीने लगी। शालिनी से पता चला कि विभा का डिवोर्स हो गया है।

सुशांतो ने किसी आयरिश महिला से शादी कर ली हैं। अब विभा पूणे में ही अपने पिता के साथ रहती है। उनके पिता अक्सर बीमार रहते है। इनकी जिन्दगी की सारी कमाई शेयर मार्केट में डूब गई थी। बैंक लोन चुकाने के लिये उन्हें अपनी कोठी एवं फार्म हाउस तक बेच देना पड़ा था। अब वे विश्रान्तबाड़ी में एक किराये के मकान में रहने लगे थे।

जब शर्मा साहब के हाथ में डिवोर्स की नोटिस मिली तो पढ़ते ही उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। एम्बूलेन्स बुलाकर रूबी होल क्लिनीक में उन्हें भर्ती करवाना पड़ा। ईसीजी, स्ट्रेस टेस्ट, इको कार्डियोग्राम, लिपिड प्रोफाईल एवं एनजियोग्राफी से पता चला कि उनकी तीन आटरिज में ब्लोकेज है। उनकी बाईपास सर्जरी शीघ्रतातिशीघ्र करवाने की सलाह दे दी गई थी। मैं इस दुखद समाचार को सुनकर बेचैन हो उठा। विभा से मिलने की चाहत प्रबल हो गई।

दूसरे ही दिन मैं शालिनी से मिलने उसके विद्यालय दौड़ पड़ा। शालिनी ने मुझे दूर से ही आते हुये देख ली थी।

हम पूणे चलने का प्रोग्राम बना ही रहे थे कि विभा सामने से आते हुई दिखलाई दी। हम आगे बढ़कर उसे थाम लिये और एक साथ कैंटिन में चले आये। हाल-चाल पूछने के बाद हमने साथ – साथ लंच लिया। विभा परेशान दिख रही थी तथा जल्दबाजी में भी थी। विभा ने सकुचाते हुये बताया कि दो लाख उन्नीस हजार का पैकेज है। डेढ़ लाख रूपये जमा कर दिये गये हैं। बाकी पैसों की व्यवस्था करनी है।

डा0 ग्रान्ट बता रहे थे कि दस दिनों का पैकेज है। पूणे के सबसे कुशल हर्ट-सर्जन डा0 मनोज प्रधान ही सर्जरी करेंगे। डरने की कोई बात नहीं है। इतनी बढि़या व्यवस्था है रूबी हाल में और इतने कुशल हर्ट-सर्जन हैं डा0 प्रधान कि दो-चार दिन पहले ही पेसेन्ट को छुट्टी मिल जा सकती है। ’ मैंने अपना मन्तव्य रखा।

फिर हम मुख्य बात की ओर आ गये। वो थी ‘सीएबीजी’( क्रोनारी आर्टरी बाईपास ग्राफ्टिंग )  के लिये बाकी रूपयों की व्यवस्था करना।

विभा ने अपने विचार रखे कि गुप्ता अंकल से एक लाख रूपये अंधेरी (पश्चिम) वाली फ्लैट रेंट के एवज में अग्रीम राशि वह ले लेगी जो उनके पिता जी ने भाड़े पर अपने मित्र नरेश गुप्ता को दे रखी है।

मैं और शालिनी दूसरे दिन सुबह ही पूणे के लिये कूच कर गये । हम सीधे रूबी हाल गये। विभा मुख्य द्वार पर ही इंतजार करती हुई हमें मिल गयी। बाकी की राशि नगद कैश काउन्टर पर जमा कर दी गई और डा0 ग्रान्ट को इसकी सूचना दे दी गई। 8 अप्रैल समय सुबह सात बजे दिन सोमवार को हर्ट सर्जरी का वक्त निर्धारित किया गया तथा इसकी सूचना विधिवत हमें दे दी गई। आवश्यक औपचारिकता भी पूरी कर ली गई। आठ यूनिट ए पोजिटिव ब्लड की भी व्यवस्था हो गई।

शालिनी तो उसी दिन मुम्बई लौट गई, लेकिन विभा के आग्रह पर मुझे रूक जाना पड़ा।

आठ अप्रैल की सुबह ठीक सात बजे वार्ड सिस्टर इन्चार्य ने ओ0टी0 सिस्टर – इन्चार्य को शर्मा साहब का शरीर ग्रीन क्लोथ में विधिवत लपेट कर हैण्ड ओवर कर दिया गया | स्ट्रेचर को वार्ड बॉय ने थर्ड फ्लोर से सेकेन्ड फ्लोर के ओ0टी0 में पहुँचा दिया। हमलोग पीछे-पीछे चल रहे थे। ओ.टी. में ले जाने के पूर्व एक बेहोशी की सूई शर्मा साहब को दी गई। वे धीरे-धीरे अचेत होने लगे। हमें चिकित्सकों के दल ने बाहर जाने का आग्रह किया।

हम बाहर ही प्रतीक्षालय में बैठे रहे। ठीक रात आठ बजे शर्मा साहब को थोड़ी देर के लिये चिकित्सकों के दल ने उनका नाम पुकार कर हौश में लाये और क्षणभर में हौश आते ही पास ही खड़ी नर्स ने उन्हें उठाकर बिठा दिया ओर एक कटौरी गर्म दूध झट-झट चम्मच से पिला दिया और फिर उन्हें लेटा दिया गया। शर्मा साहब पुनः अचेतावस्था में चले गये।

हम डा0 ग्रान्ट से मिले तो उन्होंने सूचित किया कि आपरेसन सफल रहा। 72 घंटो तक किसी को भी मिलने नहीं दिया गया।

चौथे दिन हमें मिलने की इजाजत दी गई। सुबह ही हम शर्मा साहब से मिलने गये। शर्मा साहब हमें दूर से देखकर इशारा से समझाने की कोशिश की कि वे अब ठीक है। सीने में ‘इनसिजन’ होने से डाक्टर ग्रांट ने उन्हें बात करने से मना कर रखा है. मैं तो उनकी पास वाली कुर्सी पर बैठ गया और विभा उनके सिर के पास बैठकर उनके बालों को सहलाने लगी। शर्मा साहब के होंठ कुछ कहने के लिये कई बार काँपे मानो वे मुझसे कुछ कहना चाहते हो।

मैं उसी शाम मुम्बई लौट आया। विदा करते वक्त विभा एकाएक फूट पड़ी। मैंने उसकी आँखों में झाँका तो पाया कि उनमें एक ऐसा सूनापन है जिसे भरना असंभव तो नहीं लेकिन कठिन जरूर है। मैने उसके आँसू पोछने के लिये हाथ बढ़ाये ही थे कि उसने पकड़ लिये और बोली, ’’इन्हें तुम कब तक पोछते रहोगे ? मैने कोई जवाब देना उचित नहीं समझा क्योंकि इस घड़ी मेरी कोई बात उसे रूला सकती थी। मैं दिलाशा देने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकता था। एक तो मैं विवशता के वशीभूत था और दूसरी  मर्यादा दीवार बनकर हमारे बीच खड़ी थी।

विभा की ख्वाहिश उसके दिल के गहराईयों में दफन हो चुकी थी। दिन तो भाग-दौड़ में बीत जाते थे , लेकिन रात उसे काटने दौड़ती थी। रोशनी में भी उसे अंधेरेपन का एहसास होता था। रग्घू काका विभा की इन बातों से वाकिफ थे। विभा की अवस्था उससे देखी नहीं जाती थी। माँ के स्वर्गवास हो जाने के बाद रग्घू काका ने ही विभा को  एक माँ की तरह पाला-पोसा था। उसे अँगूलियाँ पकड़ कर चलना-फिरना सिखाया था। विभा के हर सुख- दुःख के वे चश्मदीद ग्वाह थे। तो ऐसे में उनको पीड़ा न होती तो किसको होती ?

इंसान परिस्थितियों का दास होता है। उसे वक्त के साथ समझौता करना पड़ता है। कुछेक दिनों का मेरा सानिध्य मानों विभा में जैसे पुनः जीने की लालसा पैदा कर दी थी। यह बात उसके व्यवहार, हाव-भाव एवं बोडी – लेंग्वेज से साफ झलकती थी। स्त्री लज्जा की प्रतिमूर्ति होती है। वह पहल नहीं कर सकती।

जब वह मेरी ओर अपलक निहारने लगती थी तो ऐसा प्रतीत होता था कि वह अब भी मुझे उतना ही चाहती है जितना पहले और प्रतिदान की अपेक्षा अब भी हृदय के किसी अज्ञात कोने में संजो कर रखी हुई है। लज्जावश स्त्री होने के नाते, वह चाहकर भी अपने दिल की बात मुझसे खुलकर कह नहीं पाती थी। ईश्वर ने यह गुण स्त्री को एक अनमोल आभूषण की तरह उपहार स्वरूप सौंप रखा है। इसे उसके आन्तरिक सौन्दर्य का पर्याय कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

विभा ने फोन पर सूचित किया कि शर्मा साहब को 15 अप्रैल की जगह एक दिन पूर्व ही 14 को ही हास्पीटल से छुट्टी मिल गई है। उसने मुझे 15 को आने की गुजारिश की जिसे मैं टाल नहीं सका। मेरे पाँव स्वतः पूणे की ओर बढ़ गये। विभा में अब भी वह चुम्बकीय आकर्षण था जो मुझे अनायास खींच लेता था। मैं ज्योंहि फाटक पर पहुँचा कि विभा मेरी प्रतीक्षा में खड़ी मिली। हम साथ-साथ शर्मा साहब के कमरे में दाखिल हुये। शर्मा साहब अपेक्षाकृत प्रसन्न दीख रहे थे। तकिये के सहारे उठकर बैठे हुये अखबार पढ़ रहे थे।

हमारी आहट का भान होते ही सजग हो गये और अखबार को दरकिनार करते हुये मुझे अपने पास ही खींचकर बैठा लिये। आज मैंने उनके भीतर एक बदला हुआ इंसान को पाया।हाल-चाल पूछने के पश्चात् उन्होंने ही पहले बात शुरू की,

“बेटा मैंने तुम्हें समझने में बड़ी भूल की जिसकी सजा विभा को मिल रही है। मुझे पिता कहलाने में शर्म आती है। सुशांतो बड़ा ही बेवफा निकला – डिवोर्स बिना किसी वजह की दे डाली। मैंने इंसानियत को ठोकर मारी और मदान्ध में दौलत व शोहरत को तरजीह दी। यही नही मैंने वगैर किसी कसूर के तुम्हारे साथ बदसलूकी की – तुम्हें अपशब्द कह डाले। मुझे तो मर जाना …………….।”

मैंने बीच में ही आगे बात करने से शर्मा साहब को रोका। वे समझदार थे शीघ्र चुप हो गये। मैने देखा शर्मा साहब भावावेश में अन्दर से द्रवित हो रहे है और मुझे लगा कि वे रो पड़ेंगे तो मैने उनके हाथ पकड़ लिये। उन्होंने मेरे हाथों को अपने हाथों में थामते हुये मन की बात रखी,

” जब दौलत और शोहरत हाथ से निकल जाती है तो अपने भी बेगाने हो जाते है। सुदुर तक कोई अपना कहने वाला नजर नहीं आता। कोई झाँकने तक भी नहीं आता। उन्हें डर रहता है कि शायद मैं उनसे कुछ माँग न बैठूँ। यही दुनियाँ की रीति है और भला मैं कैसे इससे अछूता रह सकता।”

रग्घू काका पास ही खड़े थे। उनकी ओर इशारा करते हुये शर्मा साहब विफर पड़े ‘‘एक रग्घू ही है जिसने इस विपदा की घड़ी में भी हमारा साथ नहीं छोड़ा। दूसरी विभा है जो एक आज्ञाकारी पुत्र की भाँति मेरी सेवा-टहल की, मुझे मौत के मुँह से खींचकर बाहर निकाला और तीसरे तुम हो जिसे मैंने कई बार जलील की, खरी-खोटी सुनाई, लेकिन सब कुछ भुलाकर हमारे बुरे वक्त में साथ दिये, हमारी जी-जान से मदद की।

सर्जन ने ज्यादा बात करने की मनाही कर रखी थी और शर्मा साहब भावावेश में बोले जा रहे थे। इंसान में भले-बूरे का ज्ञान जन्मजात होता है, लेकिन किसी वजह से वह सुसुप्तावस्था में रहता है। मैंने देखा की आज शर्मा साहब का अभिमान टूट कर खंडित हो चुका है। वे एक हारे हुये सैनिक की तरह हथियार डाल चुके हैं। विभा मुझसे बेइंतहा मोहब्बत करती थी और मैं भी उसे बहुत प्यार करता था। लेकिन यह प्यार मित्रता तक ही सीमित थी। मैंने इसे कभी अपने उपर हावी होने नहीं दिया। मेरा लक्ष्य हमेशा पढ़ाई-लिखाई में अब्बल आना था।

फिर भी उम्र का तकाजा कहिये या वक्त की जरूरत ,  मैं विभा को बहुत अधिक चाहने लगा था। उससे मिलने व उससे बात करने की लालसा मन में बनी रहती थी। यही नहीं एक अजीब किस्म की बेचैनी का एहसास होता था मुझे , जब किसी दिन हम नहीं मिल पाते थे। यही वजह थी कि विभा का विवाह हो जाने के पश्चात  शादी करने की मेरी ईच्छा जैसे मर सी गई थी। विभा की यादें-उसके साथ बिताये पल मेरे विवाह में एक दीवार बनकर खड़ी हो जाती थी। मैं बचपन से ही थोड़ा संकोची स्वभाव का जीव था। इसलिये मैं कभी चाहते हुये भी अपने प्यार का खुलकर इजहार नहीं कर सका।

शर्मा साहब ने दुनिया देखी थी। वे ताड़ गये थे कि मैं अब भी विभा को उतना ही चाहता हूँ और यदि मैं उसे जीवन-संगिनी बना लूँ तो उसके नीरस जीवन में फिर से बहार आ सकती है। वे अपनी ओर से इस संबंध में कोई पहल करना अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे।

जब मैंने उनकी मंशा भाप ली  तो मैंने बड़ी ही सहजता से अपनी बात रखी, अंकल अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है , यदि आप चाहें तो………..।

मेरी इस बात को सुनकर वे इतने भावविहव्ल हो गये कि उनकी आँखों से अविरल अश्रुधार फूटने लगी, उनका गला रूँघ सा गया। उनकी जिह्वा जकड़-सी गई। वे कृतज्ञता में मुझे अपनी बाहों में समेट लिये।

विभा दरवाजे की ओट से हमारी बातें सुन रही थी। जब मैंने नजर उठाकर उसकी ओर देखा तो उसने हथेलियों से लज्जावश अपना चेहरा ढ़क लिया और वहाँ से भाग खड़ी हुई। नीचे जाने के लिये लिफ्ट में घुसी ही थी कि मैने दौड़कर विभा को अपनी बाँहों में भींच लिया। वह छटपटाकर मूर्तिवत खड़ी रही। मैंने फिल किया की अब भी विभा के शरीर में जीवन का स्पन्दन शेष है, केवल उसे ढ़ंग से सीचने की आवश्यकता है। उसी लिफ्ट से हम साथ – साथ लौट गये। शर्मा साहब का पाँव छूकर हमने आर्शीवाद लिया। वे हमें अपनी बाँहों में समेट लिये। उनकी खुशी की कोई सीमा नहीं थी। उनके आँसू अब भी थमने के नाम नहीं ले रहे थे।

जब रग्घू काका पानी का जग लेकर केबिन में प्रवेश किये तो इस तरह हम दोनों को शर्मा साहब के आगोश में देखकर हतप्रभ हो गये। उनके हाथ से पानी का जग छूट गया। अनायास ही उनके मुख से वाणी फूट पड़ी, ‘‘साई ने विटिया की आखिरकार सुन ली और उनकी मंशा पूरी कर दी। एक उजड़ा हुआ संसार बाबा ने फिर से बसा दिया।

मैंने देखा जग कोने में औंधा पड़ा था और जग का सारा पानी गिरकर कमरें में पसरा हुआ था। कहाँ होश था किसी को कि…………………..?

शिवरात्री की शुभ घड़ी में हमारी शादी शिरडी के साई बाबा के प्रागंण में हो गई। हमने साई बाबा को प्रणाम कर आर्शीवाद प्राप्त किये। आर्थिक मंदी के दौर में शर्मा साहब के सबकुछ लूट जाने के बावजूद अंधेरीवाली फ्लैट बच गई थी। हमने उसे खाली करवाया और हम पूणे छोड़कर यहीं चले आये। अपना घर का रौनक ही कुछ और होता है।

हमारे जीवन में पुनः खुशियाँ लौट आई। मैं कई रातों से विभा की डेलिवरी के चक्कर में सोया नहीं था इसलिए मेरी आँखें बैंच पर बैठे-बैठे लग गई थीं और मैं घंटों वहीं निढ़ाल होकर सोया हुआ था। एक तरह से स्वपनलोक में खोया हुआ था। शर्मा साहब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ आ धमके और मुझे आवाज देकर उठाये और बोले, लंच ले आया हूँ।

मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा और टिफिन केरियर थामते हुये वार्ड की तरफ जाने लगा तो शर्मा साहब ने सूचित किया ‘‘विभा बच्चों के साथ सोई हुई है। वहाँ जाने की कोई जरूरत नहीं है। यहाँ बैठ कर खा लो’।

मेरा मन उदिग्न था। इसलिए मैं टिफिन केरियर लेकर कैन्टीन की ओर चल दिया। लंच लेकर वार्ड की तरफ चला गया। देखा विभा उठकर बैठी हुई है और बच्चों को दुध पिला रही है।

मुझसे रहा नहीं गया। मैंने झिड़कते हुये कहा ‘‘ दुध ही पिलाती रहोगी या स्वयं कुछ खाओगी – पीओगी ?’’

विभा ने हाथ से चुप रहने का इशारा किया। मुझे ज्ञात हुआ कि अब विभा बच्चों को सुला लेने के बाद ही लंच लेगी। माँ बनना किसी स्त्री के लिए सुखद घड़ी होती है और इससे भी ज्यादा सुखद घड़ी शिशु को स्तनपान करवाना। और जिनको दो-दो बच्चे साथ-साथ हों, उनकी बात ही कुछ निराली होती है। विभा के साथ भी वही बात हुई। विभा बच्चों को सुला कर लंच करने बैठ गई। मैं उसके पास ही स्टूल पर बैठकर पेपर पढ़ने लगा।

विभा खा भी रही थी और नजर उठाकर निहार भी लेती थी। मानो कह रही हो कि अब मैं ज्यादा वक्त तुम्हें नहीं दे सकती। बच्चे जनने के बाद ठीक से खान – पान का ख्याल रखा जाये तो औरत के बदन में निखार आ जाता है। विभा पहले से ज्यादा खुबसूरत लग रही थी। पूरा बदन भरा हुआ था। मैं उसे अपलक निहारता रहा और सोचता रहा कि दुःख की घड़ी कटते नहीं कटती और सुख के पल के पर निकल आते हैं.  पता ही नहीं चला की हमारी शादी के तीन वर्ष कैसे गुजर गये।

कहते हैं कि बच्चे होने के बाद स्त्री का सारा ध्यान पति से हटकर बच्चों पर चला जाता है। नारियों में यह प्रकृति प्रदत्त गुण होते हैं। जब से ये दोनों बच्चे हुये हैं, विभा ज्यादातर उन्हीं के देख – रेख, पालन-पोषण में अपना वक्त गुजारती है। ऐसे वक्त में मैं भी उसे तंग नहीं करता। विभा तो निश्चिन्त होकर बच्चों को लेकर सो जाती है और खर्राटे मारती है। लेकिन मैं ? लेकिन मैं रातें पलकों में काटता हूँ. काश , इस बात को विभा समझ पाती !

मैं जब भी अकेला होता हूँ तो अतित में खो जाता हूँ और सोचने के लिए विवश हो जाता हूँ कि हम पूणे छोड़कर मुम्बई तो आ गये, लेकिन पीछे छूट गई हमारी ‘‘वो जीवन की अनमोल घड़ी ’’ |

नोट :  यह कहानी 29 सेप्टेम्बर 2009 को वर्षों के अथक परिश्रम से पूर्ण हुयी |

साभार एवं सस्नेह !

दुर्गा प्रसाद |

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