आओ, मेरी तारीफ़ करो !
अपनी तारीफ़ सुनकर किसे खुशी नहीं होती. वैसे दूसरों की बुराई करने में भी काफ़ी खुशी मिल जाती है किंतु अपनी तारीफ़ की तो बात ही कुछ और है. पता नहीं आपको होती हो या नहीं किंतु साहब मुझे तो अपनी तारीफ़ में बहुत खुशी होती है. सच कहूँ तो दूसरों की बुराई करने से भी अधिक होती है.
तारीफ़ का आविष्कारक अवश्य ही कोई बुद्धिमान व्यक्ति रहा होगा. देवता भी हो सकता है क्योंकि मनुष्यों से पहले देवताओं में तारीफ़ों का वर्णन मिलता है. देवताओं की तारीफ़ की भी जाती है और वे स्वयं एक दूसरे की तारीफ़ करते भी हैं. बहरहाल यह शोध का एक अच्छा विषय हो सकता है कि तारीफ़ का आविष्कारक कौन था? लेकिन इतना तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि इसका आविष्कारक कोई मनुष्य होता और उस समय नोबल पुरस्कार प्रचलन में होता तो उसे इस पुरस्कार से सुशोभित करने में किसी को कोई संकोच न होता.
वर्तमान में तारीफ़ के कई समानार्थी शब्द प्रचलन में आ गए हैं, जैसे – प्रशंसा, खुशामद, जीहुजूरी, चापलूसी, चमचागिरी करना आदि और नवनीत-लेपन, मक्खन लगाना इत्यादि. इनसे आजकल दूसरे के गुणों की तारीफ़ की जाती है और उसके व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाई जाती है. सच्ची वस्तुओं और बातों का चलन कम होने के कारण अब लोगों को झूठी तारीफ़ से ही काम चलाना पड़ रहा है.
तारीफ़ का महत्त्व राजतंत्र, अधिनायकतंत्र, लोकतंत्र व भीड़तंत्र से लेकर झूटतंत्र तक सब में रहा है, और है. पुराने ज़माने में किसी ने राजा-महाराजा की तारीफ़ की नहीं कि राजा-महाराजा ने उसे 10 गाँव या सोने की 100 अशर्फियों से नवाज़ा नहीं. उस समय चारण और भाट इस कला में निष्णात थे और राजा-महाराजा इसके पारखी कद्रदान. सब देशों और कालों में इसका विकास हुआ है. आज तो इसका सर्वतोन्मुखी विकास हो रहा है.
लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही तारीफ़ के स्कोप में काफ़ी वृद्धि हुई है. लोकतंत्र में पहले छुटभइया नेता बड़े नेता की तारीफ़ करता है, दूसरों से अपनी तारीफ़ करवाता है और बदले में चुनाव का टिकट पा जाता है. इसके बाद वह मतदाता की तारीफ़ करता है और चुनाव जीतता है. उसके कुर्सी पर बैठते ही जनता अपना काम निकालने के लिए उसमें 64 कलाएं ढूढ़ निकालती है और उसकी तारीफ़ करती है. किंतु नेता बेचारे को फुर्सत कहाँ ! फिर चुनाव होने पर वही नेता जनता की अदालत में रोता, गिड़गिड़ाता है. अपनी तारीफ़ और विरोधी नेताओं की निंदा करता है. जनता को सर्वाधिक योग्य बताकर बड़े मनोयोग से उसकी निर्णायक क्षमता और नीर-क्षीर विवेक की तारीफ़ करता है. जनता अपनी तारीफ़ सुनकर फूली नहीं समाती और उसकी तारीफ़ से प्रसन्न होकर दुबारा उसी को सत्ता की कुर्सी पर सवार करा देती है.
आज चारों ओर तारीफ़ों की बाढ़ है. दुकानदार अपने माल की तारीफ़ करते नहीं थकता. ठेकेदार इंजीनियर की, वकील जज की, बाबू अफ़सर की, अफ़सर मंत्री की, विद्यार्थी परीक्षक की और नेता बड़े नेता की तारीफ करते नहीं अघाते. प्रेमी प्रेमिका की तारीफ़ करने तथा विवाहित पुरुष दूसरों की पत्नी व अपने बच्चों की तारीफ़ में कोई कोरकसर नहीं छोड़ते. पंडों, पुजारियों ने तो भगवान की तारीफ़ का ठेका ले ही रखा है.
कवि सम्मेलनों और मुशायरों में तारीफ़ का प्रचलन कुछ ज्यादा ही है. कवियों और शायरों में एक अलिखित समझौता सदा से रहा है—मैं तुम्हारी शायरी पर दाद दूंगा, तुम मेरी कविता पर कहना, “वाह, वाह! खूब! बहुत खूब!! एक बार फिर!!!”
दफ़्तर में वह बाबू या छोटा अफ़सर क्या जो अपने बड़े अफ़सर की तारीफ़ करना न जाने. इसके प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष सभी लाभ हैं. छुट्टी चाहिए तो बॉस को मक्खन लगाएं. किसी गुप्तचर की भांति बॉस के किसी ऐसे गुण या प्रतिभा का, जिसका पता उसे भी न हो, पता लगाइए और फिर देखिए मज़ा! बिना किसी प्रार्थनापत्र के झट से छुट्टी मंजूर! अक्षम बॉस की प्रशासनिक क्षमता और बेईमान बॉस की ईमानदारी के गुण गाइए. ठाठ से बैठे रहिए या निश्चिंत घूमिए. अपने को तुलसीदास और बॉस को राम मानकर भक्तिभाव से उसकी प्रशंसा के भजन गाइए. फिर देखिए दफ़्तर रूपी फाइलों के भवसागर से वे आपको कैसे पार लगाते हैं. वर्ष के अंत में अपनी गोपनीय रिपोर्ट में सबसे अधिक दक्ष, ईमानदार और मेहनती लिखवाइए.
घर में पत्नी की तारीफ़ कीजिए. पत्नी की बनाई कच्ची सब्ज़ी और जली रोटी की तारीफ़ करने और उसे खाने की क्षमता यदि आपके अंदर नहीं तो, ज़नाब माफ़ कीजिए, उसे अपना भेज़ा खिलाने के लिए तैयार रहिए.
कुछ लोगों की दूसरों की तारीफ़ करने की जन्मजात प्रवृत्ति होती है. वे तारीफ करने के लिए इस कदर लालायित रहते हैं कि जब तक वे किसी की तारीफ़ नहीं कर लेते, तब तक बेचैन रहते हैं. यदि तारीफ़ करने से लाभ की सम्भावना हो तो तारीफ करने के लिए बेचैनी और बढ़ जाती है. एक महाविद्यालय में एक प्रधानाचार्य ने कार्यभार ग्रहण करते हुए अपना परिचय दिया, “बंदे को चिराग अली कहते हैं.” एक अध्यापक ने तपाक से उनकी तारीफ़ करते हुए कहा, “हुज़ूर, चिराग अली को मारिए गोली. आप तो रोशन अली हैं. आफ़ताब अली हैं.” अब आप ही बताइए, ऐसी तारीफ़ पर कौन न हो कुर्बान!
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी तारीफ़ करने के लिए मज़बूर हैं. उन्हें अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू बनना ही पड़ता है. रेडियो और टी.वी. विज्ञापन-दाता भी इसी श्रेणी में आते हैं. वे अपने उत्पादों की तारीफ़ इस ढंग से करते हैं कि हम न तो उनके तारीफ़ करने के ढंग की तारीफ़ किए बिना ही रह सकते हैं और न ही उनका उत्पाद खरीदे बिना.
तारीफ़ की तारीफ़ सुनकर मैं भी एक सज्जन से उनकी तारीफ़ पूछ बैठा. वे कहने लगे, “अरे साहब, हमारे बालों को देखकर आपको नहीं लगता कि हम पक्के राष्ट्रभक्त हैं.” बालों से राष्ट्रभक्ति का क्या सम्बन्ध हो सकता है, मैं इस बारे में सोच ही रहा था कि वे तपाक से बात आगे बढ़ाते हुए बोले, “नहीं समझे न? अच्छा हम तुम्हें समझाते हैं. हमारे तिरंगे बालों (जो कुछ काले, कुछ सफ़ेद और कुछ रंगने से केसरिया हो गए थे) से क्या राष्ट्रीयता नहीं झलकती? हम अंग्रेज़ी से एम.ए. हैं इसलिए नाम अंग्रेज़ी में लिखते हैं. किंतु बोलते हिंदी में हैं. उर्दू से भी परहेज़ नहीं है. क्या भाषा से भी हम राष्ट्रवादी नहीं हैं. देश की सारी समस्याओं का हल हमारे पास है. बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारी हमसे पूछकर प्रशासन चलाते हैं. मंत्री वगैरह भी हमसे सलाह करते रहते हैं. केवल हमारी पत्नी और जान-पहचान के लोग ही हमारी बातों पर संदेह करते हैं. आपको तो कम से कम संदेह नहीं करना चाहिए.” इतना कह कर वे चुप हो गए. लोगों को उनकी बात पर संदेह हो या न हो, लेकिन मुझे उनकी बात पर संदेह न करने में ही अपनी भलाई दिखाई दी.
कल बाज़ार जाते हुए अपनी गली में ही ज़नाब दिलजला ‘भटकन’ मिल गए. दुआ-सलाम के बाद हम उनसे बचना ही चाह रहे थे कि वे हमारी कमीज़ के बटन पकड़ते हुए बोले, “मियाँ, सुनते जाइए. ताज़ी गज़ल का एक टुकड़ा पेश है. जब तक मैं संभालता, उन्होंने टुकड़ा मेरी ओर दाग दिया—
रातरानी से खा गया धोखा,
आओ, अब गमलों में कैक्टस उगाएँ.
साहित्य और उसके मर्म से अनजान मैं यह सुनकर चौंका. रातरानी? कौन रातरानी? चलो मानो वह कोई भी हो. मगर ये ‘भटकन’ साहब उससे क्या धोखा खा गए? और फिर उस धोखे से कैक्टस का क्या संबंध? मान लिया कोई संबंध है भी तो ये साहब गमलों में कैक्टस उगाएँ या झाड़-झंखाड़, मुझे इससे क्या? और ये हज़रत मुझे क्यों उलझा रहे हैं? मेरा चिंतन जारी ही था कि उन्होंने टोक दिया, “अरे मियाँ, अब क्या दाद भी न दोगे?” जी में तो आया कि इन्हें दाद के साथ-साथ खाज-खुजली भी दे दूं, लेकिन उन्हें पास की चाय की दुकान की ओर बढ़ते देख मैंने उनका इरादा भाँप लिया. अंदर से खिन्न और बाहर से प्रसन्न, कद्रदान जैसी मुद्रा बनाकर मैंने कहा, “वाह साहब, वाह! क्या चीज़ पेश की है. ख़ूब, बहुत ख़ूब.” परिणाम अच्छा रहा. उन्होंने मुझे गरमागरम चाय का प्याला और ताजा बर्फ़ी के दो टुकड़े पेश कर अपने एहसान फ़रामोश न होने का पक्का सबूत दिया. ऊपर से मेरी कद्रदानी की जो तारीफ़ की सो अलग.
कभी-कभी खाली तारीफ़ों से काम नहीं चलता तो तारीफ़ों के पुल बांधे जाते हैं. पुल बांधने वाले बिना असफलता की डुबकी के अपने लक्ष्य के पास खटाखट पहुँच जाते हैं. इन पुलों की विशेषता यह भी होती है कि बनने के बाद ये प्राय: हमारे ठेकेदारों और इंजीनियरों के बनाए पुलों की भांति जल्दी नहीं टूटते. वैसे हमारे धर्म के ठेकेदार संप्रदायों को जोड़ने वाले पुल के निर्माण का भरसक प्रयास कर रहे हैं किंतु उन्हें अभी तक इसमें सफलता नहीं मिल पाई है. यदि कभी ऐसा हो जाए तो यह वाकई काबिले तारीफ़ होगा.
तारीफ़ करने और करवाने का चस्का जब देवताओं को भी लगा और मनुष्यों को भी, तो पशु इसमें पीछे क्यों रहते. संस्कृत का एक श्लोक याद आ रहा है—
ऊष्ट्राणाम् लग्नवेलायाम् गर्दभ: स्तुतिपाठक: |
परस्परम् प्रशंसन्ति अहोरूपमहोध्वनि ||
(ऊँट के विवाह पर गधा स्तुतिवाचक है. दोनों एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं. गधा ऊँट से कह रहा है, “अहा! आपने क्या रूप पाया है!” ऊँट गधे से कह रहा है, “अहा! आपका कंठ कितना मधुर है!”)
पशु भी जब इतनी समझ रखते हैं तब मनुष्य तो आखिर मनुष्य ही है. पहले तो वह पशुओं से आगे रहे, नहीं तो कम से कम पीछे भी क्यों रहे. मैं भी एक मनुष्य हूँ. मुझे अपनी तारीफ़ करने और करवाने की ललक उठती है. पहले झिझकता हूँ कि किसी से कैसे कुछ कहूँ. किंतु फिर अपने को रोक भी नहीं पाता हूँ. इसलिए विवशता में कहना ही पड़ता है कि आओ, मेरी तारीफ़ करो.
तो पढ़ रहे हैं न अब आप मेरी शान में कसीदे?
*****