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When I Lost My Father In Childhood !

Published by Durga Prasad in category Childhood and Kids | Family | Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag death | father | grandmother | Mother | uncle | village

पिता जी ने दादा जी के देहांत के बाद सारा कारोबार सम्हाल लिए थे, लेकिन मेरे चाचा गौरी शंकर में वो क़ाबलियत नहीं थी कि पिता जी के गुजर जाने के बाद उनके कारोबार को संभाल सके . पिता जी ने अपनी सूझ-बुझ से कारोबार को बहुत हद तक आगे बढ़ाये थे. कपडे की दूकान के अलावे खेती – गृहस्थी का काम कई गावों तक फैला हुआ था. धान की खेती अधीक ही होती थी. बाजरा , मकई , सरसों , गन्ने की भी खेती होती थी. मडुवा, कोदो, गुन्दली की भी कहीं – कहीं खेती होती थी. हरी सब्जी रोज मिल जाती थी. घर में नौकर – चाकर के अलावे मुनीम एवं एक सिपाही जी भी काम करते थे जिनका काम कारोबार में सहयोग करना था. बिसना गाडीवान था और पानी भरने , गाय – गोरु की देखरेख करने का काम करता था. एक कामिन थी जिसका काम वर्तन मांजना एवं झाड़ू – बुहारू करना था.

पिता जी के न रहने पर कारोबार धीरे – धीरे घटने लगा. नौकर चाकर भी समय पर मजदूरी न मिलने से छोड़ कर चले गये. मुनीम जी एवं सिपाही जी को दादी ने मजबूरन निकाल दिया. माँ के ऊपर काम का बोझ इतना बढ़ गया की उसे क्षणभर फुर्सत नहीं मिल पाती थी कि किसी से एक घड़ी बात भी कर सके. पिता जी के असमय गुजर जाने के बाद उनके जीवन में जो खालीपन हो गया उसे ताजिंदगी भरा नहीं जा सका. माँ हर पर्व – त्यौहार में उदास हो जाया करती थी. मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि माँ को पिता जी के साथ बितायी हुयी घड़ी उसे भावुक बना देती थी. इस घड़ी माँ को कुछ भी अच्छा नहीं लगता था.

मैंने जहाँ – जहाँ नौकरी की माँ को साथ ही रखा. चाहे सिंदरी हो या जयरामपुर या कुस्तौर – सभी जगह माँ मेरे साथ थीं. हम जुलाई १९६९ से १९८१ तक इन जगहों में कार्यरत रहे. माँ घर के कामों एवं बच्चों के पालन –पोषण में कोई कौर-कसर नहीं छोड़ी. यदि माँ न होती तो क्या हम अपने बच्चों को इतनी अच्छी तरह पाल-पोश सकते ! १० फरवरी १९८१ सरस्वती पूजा ( बसंत पंचमी ) के दिन हम कुस्तौर से अपने नेटिव प्लेस गोबिन्दपुर चले आये. इसमें भी माँ का योगदान था. वो चाहती थी कि हम गोबिन्दपुर लौट आयें और खाली पड़ी अपनी जमीन में घर बनाकर रहें. फरवरी माह में ही हमने घर बनाने का काम प्रारंभ कर दिया और सभी लोगों के सहयोग से दशमी के दिन अपने घर में प्रवेश भी कर गए.

घर आधा – अधूरा बना हुआ था. सामने और पीछे गेट लगवाकर हम घर में रहना शुरू कर दिए. एक बात भुलाये नहीं भूलती कि १० फरवरी १९८१ – सरस्वती पूजा के दिन जब हम करीब एक बजे दिन को घर पहुंचे तो जोरों की बारिश हो रही थी – मकान के सामने की जमीन पानी से लबालब भरा हुआ था. इस हाल में हमें खटिया- मचिया , चौकी – टेबुल , कुर्सी , माल असबाब जो बोरे में बंधे हुए थे , सर पर लेकर घुटने भर पानी से होकर घर में घुसाना पड़ा. अगल- बगल के लोगों लिए यह तमाशा से कम नहीं था. हम किसी की परवाह किये वगैर झट-झट सारा सामान घर में जल्द घुसा दिए. मेरे साथ मेरी माँ , मेरी पत्नी, दो लड़के श्रीकांत एवं रमाकांत ,दो लड़कियां सुमन एवं सुस्मिता – सात सदस्यों का परिवार था. शिफ्टिंग में सभी लोग व्यस्त थे. सबों को भूख लगी हुयी थी.

माँ ने झट चूल्हा जला कर दाल-भात व सब्जी बना डाली. हमलोग भोजन करके सामान को खोलकर सरियाने में मशगूल हो गए. खाना खाकर बच्चे – सुमन, श्रीकांत एवं रमाकांत जल्द ही सो गये. हम अपने बीते दिनों को याद करने में व्यस्त हो गए. कुस्तौर में करीब हम चार साल दुःख – सुख में गुजारे. मैं कुस्तौर एरिया में काम करता था. कार्यालय नजदीक था. मुझे आने – जाने में कोई असुबिधा नहीं होती थी. सप्ताह में एक बार रासन-पानी के लिए झरिया जाना पड़ता था . केन्दुआ बाज़ार भी नजदीक ही था. संगी – साथी मिल जाने पर बाज़ार करने कभी- कभार केन्दुआ भी निकल जाया करते थे. सब्जी लाना अति आवश्यक होता था. इसलिए हफ्ते भर की सब्जी एक बार में झरिया बाज़ार से ले आते थे.

कभी – कभी देशबंधु टाकीज में कोई अच्छी फिल्म लगने पर साथियों के साथ देख कर दस बजे रात को क्वाटर लौटते थे. बी टाईप क्वार्टर बालू गादा के पास ठीक सड़क के किनारे था. चार क्वार्टरों का ब्लोक था. ऊपर प्रथम तल में दो और नीचे दो. ऊपर तल में वी. के. सिंह और आर. बी तिवारी , खान प्रबंधक , रहते थे . नीचे मैं और प्रिंसिपल मल्लिक रहते थे. सभी परिवार वाले थे. वी. के. सिंह का एक छोटा भाई था. हम उसे छोटा साहेब कहते थे. वे भी खान प्रबंधक थे. हम सब एक संयुक्त परिवार की तरह रहते थे और आपस में अपना दुःख – सुख बांटा करते थे. यही वजह थी कि हमारा चार साल कैसे बीत गया मालुम ही नहीं पड़ा. हमारा क्वार्टर खुली जगह में था. सामने सड़क, पीछे कुस्तौर क्लब , आर.सी.ए. स्कूल , श्रीवास्तव साहब का बंगला. पक्की सड़क , जो मुख्य सड़क से क्लब तक जाती थी. इस सड़क के किनारे दिन भर चहल-पहल रहती थी. लोग कहते थे कि हमारा क्वार्टर बहुत ही सुनसान जगह में है , लेकिन ऐसी बात नहीं थी.

तिवारी जी से मेरा आत्मीय संबंध था. उनके पास जीवन का कटु अनुभव था. अपने अनुभव को मेरे साथ शेयर करने में उनको आनंद की अनुभूति होती थी. इसकी वजह थी कि मैं उनकी बातों को गंभीरता से लेता था और अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता था. एक बार उसने मुझे बतलाया कि कोई काम कठीन हो सकता है ,लेकिन असंभव नहीं. तिवारी जी गुणों के भण्डार थे, लेकिन एक इतना बड़ा अवगुण था उनमें कि वे सर्विस केरिएर में कभी भी सुख – शांति से नहीं रहे. वो था अपने उच्च अधिकारी से उलझना वो भी बेवजह – बेमतलब. ऐसा करने में उसे आशातीत आनंद की अनूभूति होती थी. वे डाट – फटकार या बूरे परिणाम की परवाह नहीं करते थे. क्लब के पास ही मेरा क्वार्टर था.

हर शनिवार को क्लब डे शाम को निर्धारित था. सभी सदस्य उस शाम बाल- बच्चों के साथ क्लब आते थे. रिफ्रेशमेंट एवं डिनर की व्यवस्था क्लब के द्वारा होती थी. जी. एम. साहेब कोंटेक्ट ब्रिज खेलने के शौकीन थे. मैं बहुत ही जूनियर अफसर था, लेकिन ऑडिट एवं एकाउंट्स क्लोजिंग का काम अच्छी तरह देखने के कारण जी. एम. साहेब मुझे बहुत प्यार करते थे और अपने साथ बैठाने में संकोच नहीं करते थे. जी. एम. साहेब का पार्टनर सीनियर मैनेजर्स हुआ करते थे. कभी – कभी मुझे भी खेलने का चांस मिल जाता था. एन शाम तिवारी जी जी. एम साहेब के बगल में बैठकर खेल देख रहे थे. किसी बात को लेकर मैनेजर के दावित्य एवं कर्तव्य पर चर्चा – परिचर्चा हो रही थी. जी. एम. साहेब ने कुछ बिन्दुयों पर मैनेजर की जम की आलोचना कर दी. फिर क्या था तिवारी जी ने विरोध के तौर पर अपनी बात रख दी , “ सर ! यू आर अल्सो ए मैनेजर.’

‘ मिस्टर तिवारी ! आई एम नोट ए मैनेजर , आई एम ए मैनेजर ऑफ द मैनेजर्स , माइंड इट “

तिवारी जी की बोलती बंद हो गई. हमलोगों ने शोच लिया कि मंडे का दिन तिवारी जी के लिए बुरा होगा, जी. एम. साहेब जरूर सबक सिखायेंगे. मैं और तिवारी जी एक साथ क्लब से पैदल ही चल दिए क्योंकि हमारे क्वार्टर पास ही थे. मैंने तिवारी जी से कहा, ‘ आप को जी.एम. साहेब को नहीं छेड़ना चाहिए था.” ‘

“छोड़िये, क्या कर लेंगे, ज्यादा से ज्यादा ट्रासफर कर देंगे. मैं इसकी परवाह नहीं करता. मुझे जो बोलना था बोल दिया. ’’

एरिया ऑफिस में मंडे को तिवारी साहब का ट्रांसफर लेटर बन कर तैयार हो गया और निर्गत भी कर दिया गया. एरिया ऑफिस में चर्चा का विषय बन गया. मैं तो जानता था ,लेकिन मुँह बंद रखना ही उचित समझा. तिवारी जी ने मुझे फोन पर खबर दी कि उनका ट्रांसफर हो गया है किसी दूसरी कोलियरी में. कल जोएन करेंगे. साथ ही साथ यह भी बता दिए कि वे पहले से ही जानते थे कि उनका ट्रासफर ऑर्डर मंडे को निश्चितरूप से हो जायेगा. आत्मसंतोष के लिए तिवारी जी ने आख़िरी वाक्य कहा , ‘ मैं ऐसी गीदड़ भभकी से नहीं डरता, यहाँ भी काम करना है, वहाँ भी काम करना है, मेहनत और ईमानदारी से , फिर डरना किस बात का ? ’’

तिवारी जी की दलील में दम था, इसलिए मैंने बात को यहीं पर विराम दे दिया. ऐसी – ऐसी घटनाओं को झेलते – झेलते मंज गए थे. इसलिए उनके चेहरे पर शिकन तक न थी इस ट्रांसफर ऑर्डर के मिलने से. ऐसे तिवारी जी से मेरी आत्मीयता थी और हम हर विषय पर सलाह- मशविरा करते थे. उनका सलाह बड़ा ही माकूल होता था. किसी महत्वपूर्ण मुद्दे में उनका परामर्श लिए वगैर मैं अंतिम निर्णय कभी नहीं लेता था. ऐसे सूझ – बूझ से सुसज्जित थे तिवारी जी. दुनियादारी में तो वे पारंगत थे. लंबा – चौड़ा कद – काठी, बदन में फूर्ती गजब की, हंसमुख चेहरा, सोसल व अति मिलनसार, वक्त के पाबन्द, रहन-सहन साधारण एक आम आदमी जैसा , उच्च विचार – कहने का तात्पर्य यह है कि तिवारी जी सर्वगुण संपन्न थे. थोड़ा झक्कीपन उनमें था जरूर और किसी की आक्षेप को वे बर्दास्त नहीं कर पाते थे चाहे आक्षेपकर्ता कितना भी बड़ा कद का क्यों न हो. यह उनके जीन में था. ऐसा मुझे आभास होता था. कुस्तौर में चार वर्ष – एक लंबा वक्त गुजर था और वक्त के साथ छोटी – बड़ी बहुत सी स्मृतियाँ जुड़ी हुयी हैं जिनका उल्लेख अन्यत्र किया जा सकता है. यहाँ वर्णन अप्रासंगिक ही होगा – ऐसा मेरा मत है.

मैंने ३० जनवरी १९८१ को कुस्तौर एरिया से ट्रासफर होकर कोयला भवन सेंट्रल एकाउंट्स सेक्सन में सहायक वित्त पदाधिकारी के पद पर जोयन कर लिया था. बेरा साहेब मेरे बोस थे. बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे. काम के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित थे. मेरा यह सौभाग्य था कि ऐसे व्यक्ति के साथ मुझे काम करने का सुअवसर मिला. वे द्रोणाचार्य की तरह मुझे काम करने के तौर-तरीके सिखाते थे तो मैं भी एकलव्य की तरह उनके आदेशों का पालन करता था. मैंने कभी भी उनको शिकायत का मौका नहीं दिया. मैंने जो काम उनसे विशेष कर ऑडिटिंग एवं एकाउंट्स क्लोजिंग क बारे में सीखा वो आजीवन मेरे काम आया. मुझे काफी इज्जत एवं शोहरत मिली. यही वजह थी कि मुझे सेन्ट्रल एकाउंट्स में दो-तीन वर्षों के लिए इंचार्ज बनाया गया और मैं अपने दायित्व-निर्वहन में कोई कोताही नहीं की. पूरी मेहनत, लगन एवं निष्ठा से काम किया. काम तो सीखा ही साथ ही साथ लोगों से भरपूर आदर एवं प्यार भी मिला.

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. अचानक बेरा ( टी.के. बेरा ) साहेब की तबियत खराब हो गई. कई दिनों तक पेट दर्द से बेचैन रहे. दवा का कोई असर ही नहीं हो रहा था. ऐसी अवस्था में सी. टी. स्केन आदि कई तरह के टेस्ट किये गए. जो रिपोर्ट आया वह दिल दहला देने वाला था. मालुम हुआ कि बेरा साहेब को गोल्ड ब्लाडर कैंसर है. जब यह डिटेक्ट हुआ तो बेरा साहेब को नहीं बतलाया गया. उनकी पत्नी को बताने की जिम्मेदारी बसाक साहब को दी गई जिनका उनके फेमली से घनिष्ठ सम्बन्ध था. बेरा साहेब के दो छोटे-छोटे लड़के थे. मैं बेरा साहब को छोड़ने उनके क्वार्टर तक जाता था. मैंने देखा कि खाने की रूची उनकी बिलकुल नहीं है . एक दो कौर खाने के बाद सारा खाना छोड़कर हाथ धो कर उठ जाते थे. बो दीदी और मैं उसकी गंभीर बीमारी से अवगत थे. इस लिए खाने के लिए जोर जबरदस्ती नहीं करते थे. बेरा साहेब , जो भी बनाने बोलते थे, बो दीदी बना कर तैयार रखती थी. लेकिन इनको भूख रहे तब न खाए !

विस्मृति के भी शिकार हो गए. छाता लेकर आते थे , लेकिन भूल जाया करते थे कि कहाँ रखे हैं. मैं उन पर नज़र रखता था. क्वार्टर तक बहुधा पहुंचा दिया करता था. उनका स्वास्थ्य दिनानुदिन गिरते जा रहा था. डॉक्टर ने बतला दिया था कि कैंसर एडवांस स्टेज में है , इसलिए ओप्रेसन संभव नहीं. वित्त विभाग पूरी तरह शौक में डूबा हुआ था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाय. अंत में बेहतर ईलाज के लिए कलकत्ता ले जाया गया . कंपनी के बड़े अधिकारी हर संभव मदद करने को तैयार थे. डी.एफ. बी.एस. मूर्ती ने तो खुले दिल से अनुमति दे दी थी कि जहाँ भी उनका ईलाज करवाना हो, उनकी जान बचाने के लिए की जा सकती है. लेकिन बहुत देर हो चुकी थी. अब कुछ किया नहीं जा सकता था . अमरिका ले जाने से जान बचाई नहीं जा सकती.

अब गिनती के कुछ दिन बच गए हैं. जब तक सांस तब तक आश. कलकत्ता के डॉक्टर ने भी अपना ओपिनियन दे दिया था. जब यह खबर कोयला भवन आई तो हम सब दुःख के अथाह सागर में डूब गए. डी. एफ. साहेब के साथ तो बेरा साहेब का दिन – रात काम के सिलसिले में उठना – बैठना होता था. वे तो सुनते के साथ आपा खो बैठे. मेरा भी हाल बुरा था क्योंकि मैं उनके बगल में ही बैठकर काम करता था. उनको मैं बहुत करीब से जनता था. यह सब अचानक कैसे हो गया किसी को भी पता न चल सका. बेरा साहेब को किसी तरह का नशा वगैरह नहीं था. एक बात जो मुझे बाद में पता चला कि वे शादी के पहले सिगरेट पीते थे , लेकिन शादी के बाद पत्नी के बार – बार उलाहना देने पर सिगरेट पीना हमेशा के लिए छोड़ दिए थे. मैंने एक बात पर गौर किया कि जब कोई आगंतुक हमारे सामने सिगरेट का कश लेता था तो बेरा साहेब बेचैन हो जाते थे. ऐसा लगता था कि उनको सिगरेट पीने की तलब हो रही है , लेकिन मजबूरन मन को दबाए हुए हैं.

मुझे तो सिगरेट की धुँआ से अकबकी होती थी. इसलिए मैं उस वक्त उठकर कहीं बाहर खुली जगह में चला जाता था , लेकिन बेरा साहेब सीट पर बैठे रहते थे. बेरा साहेब जानते थे कि मुझे बीडी सिगरेट की धुंआ से परहेज है. इसलिए जाते वक्त वे मुझे कभी नहीं रोकते थे. हम सभी जानते थे कि बेरा साहेब कुछ दिनों के ही मेहमान हैं , लेकिन जब उनके स्वर्गवास होने की खबर आई तो हम रो पड़े. पूरे वित्त विभाग में शौक की लहर दौड़ गई. कोयला भवन भी इस दुःख की घड़ी में वित्त विभाग का साथ दिया. सभी लोगों ने एक साथ उनकी दिवगंत आत्मा की शान्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की . मेरे लिए तो बेरा साहेब का असमय जाना एक बहुत बड़ी क्षति थी. वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. ऑडिट एवं एकाउंट्स के मामले में तो वे इतना पारंगत थे कि कोई भी उनको डिगा नहीं सकता था. डी. एफ. मूर्ती साहेब तो उनके मुरीद थे. हम सभी भी बेरा साहेब की बहुत इज्जत करते थे. हमें अनुमान था कि एक न एक दिन बेरा साहेब बी.सी. सी. एल. के डी. एफ. बनेंगे . लेकिन भगवान को कुछ और ही मंजूर था. यही विधि का विधान है कि कोई नहीं जानता कि कब और कैसे किसकी मौत होगी. जब हम दूसरे के दुःख व कष्ट को महसूस करते हैं तो अपना दुःख व कष्ट राई की तरह प्रतीत होता है.

***

आत्मकथा से : लेखक – दुर्गा प्रसाद ,पोस्ट – गोविन्दपुर, जिला- धनबाद ( झारखण्ड )

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