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Maayen Vidhva Nahin Hoti

Published by Seema Singh in category Family | Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag Love | Mother | mother-in-law | respect | widow

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Hindi Moral Story – Maayen Vidhva Nahin Hoti
Image© Anand Vishnu Prakash, YourStoryClub.com

ज़िन्दगी क्या-क्या रंग दिखाती है. स्त्री की पहचान सिर्फ उसके पति या संतान से ही हो सकती है उसका खुद का कोई अस्तित्व ही नही.

जिन माँ जी के सामने कोई ऊँची आवाज़ में बात नहीं कर पाता था. उनका ये सहमा सा रूप मुक्ता से सहन नही हो रहा था. अपनी शादी से आज तक हर काम माँजी से पूछ पूछ कर करना मुक्ता की आदत में शुमार था. उनको हमेशा ही आदेश देने वाले पद पर देखा था मगर बाबू जी के बाद अचानक…. बुआ जी जैसे कर्ता-धर्ता बन गई थी.. बीस साल के वैवाहिक जीवन में बुआ जी को दो चार बार ही देखा था मुक्ता ने. बाबूजी से पटरी नहीं खाती थी. सो उनको कम ही बुलाया जाता था. बाबूजी के सख्त आदेश थे… “मुझे घर में शांति चाहिए इसलिए कांता को ना बुलाया जाये तो बेहतर होगा.”

मगर माँ जी दुनियादार थी सो वो कहने का मौका ना देती.. बाबूजी की नाराज़गी सहन कर के भी घर की हर शादी में बुआ जी को जरुर बुलवा लेती थीं. मुक्ता के पति नलिन से छोटे विनय और कीर्ति दोनों के ब्याह में मुक्ता ने खुद देखा था.. माँ जी कैसे पर्दा डालती चलती थी. और मुक्ता की आँखों में भी यदि प्रश्न नज़र आता तो कहती, “बहू हम औरतों को सौ बातें सहन करके भी परिवार को जोड़ कर रखना होता है..” मुक्ता अनमने भाव से सिर हिला देती.

जिन बुआ जी का आना बाबू जी को बिलकुल पसंद ना था वही बाबूजी के बाद उनके घर की जिम्मेदारी ऐसे उठायें थी जैसे वो ना होती तो कोई काम हो ही ना पाता. और किसी बात से मुक्ता को भी कुछ लेना देना ना था. मगर जो माँ जी इस पूरे घर की मालकिन थी एक चीज़ उनकी खुद की जोड़ी हुई थी उनके साथ बुआ जी का व्यवहार मुक्ता को अखर रहा था..

“भाभी का बिस्तरा इधर ज़मीन पर लगेगा मुन्ना की बहू’ बुआ जी की आवाज़ से मुक्ता का ध्यान भंग हुआ.

अचकचा कर पूछ लिया “अब क्यों बुआ जी तेरहवीं भी हो गई अब तो, फिर माँ को कमर में भी तकलीफ है ज़मीन पर नहीं लेट पाएंगी.”

“तेरहवीं हो जाने से क्या हो जाता है..अरे अभी चालीस दिन की शुद्धि बाकी है.. आज कल की लड़कियाँ चार अक्षर क्या पढ़ लिख लेवे हैं. रीति-रिवाज़ मानना ही ना चाहे हैं..”

बात और ना बढे इस लिए खुद ही माँजी ने कह दिया.. “मुन्ना वो दरी चादर इधर रख दे बेटा मैं बिछा लूंगी.”

माँ जी का बिस्तर ज़मीन पर लगाकर, मुक्ता को पलंग पर भी नींद नहीं आ रही थी..रात में चुपके से उठ कर एक निगाह माँ जी को देख लेना चाहा..उसका अंदाज़ा सही था माँ जग रही थी,और ऊपर पलंग पर सोई पड़ी बुआ जी के कर्कश खर्राटों से कमरा गूंज रहा था..

मुक्ता ने माँ के पास जा कर पूछा “क्या हुआ माँ नींद नहीं आ रही ?”

माँ की कराह ने पूरा हाल कह डाला.. मुक्ता दौड़ कर गर्म पानी की बोतल और दवा ले आई हलकी मालिश और सिकाई ने थोड़ी राहत दी.

सुबह होते ही डॉक्टर आया और माँ जी को पलंग तो मिल गया. मगर खानें का क्या? खाना भी बेस्वाद बिना छौंक का और अलग बर्तनों में. अपने बर्तन भी माँ जी खुद मांजती. सब को ये ज्यादती खल रही थी मगर कोई बुआ जी के कारण कुछ कह नही पा रहा था.

इन्ही सब ढोंग-ढकोसलों के बीच जैसे तैसे चालीस दिन का व्रत पूरा हुआ. बुआ जी पूरे परिवार पर कृपा करने के बाद अपने घर वापस जा चुकी थीं. माँ जी सामान्य जीवन जीने का प्रयास करने लगी थीं. धीरे धीरे समय बीतता गया.

जो माँ त्यौहार इतने हर्षोल्लास से मनाती थी उनको इस साल सभी चीज़ों से दूर रखा जा रहा था. बुआ जी का आदेश जो था. गमीं थी ना.. ये कैसी गमीं थी कि मरे हुए इंसान का इतना शोक मनाया जाये कि जीवित को ही मार डाला जाये..ऐसे में करवा चौथ का त्यौहार! माँजी चाह कर भी खुद को संभाल नहीं पा रही थी. पूरा जीवन जिस इंसान के साथ बिताया उसकी यादों से दूर हो पाना इतना सरल भी नही था..

बुआ जी हर त्यौहार से पहले आ जाती थीं .. रीति रिवाज़ बताने और निभाने के नाम पर, जैसे उनके अपने घर में तो कोई काम ही ना हो.. सो करवाचौथ से पहले भी आ गई.. और तरह तरह के निर्देश दे डाले.. “भाभी तुम सुबह से ही ऊपर की कोठरी में बैठ रहना.. मेरी तो कोई बात ना है बड़ी बूढी हूँ .. मगर बहुएं पूजा करेंगी… अपशगुन होए है विधवा की परछाई पड़े तो..”

“ना ना जीजी आप ठीक कह रही हो मैं ध्यान रखूँगी.” अपनी नम पलकों की कोर को बिना मसले सुखा डाला माँ ने और अपने पुत्रों की मंगल कामना के लिए ऊपर की कोठरी में चली गई.

रात को पूजा के बाद चंद्रमा को जल चढ़ा मुक्ता माँ जी को ढूढती फिर रही थी पूरे घर में, कि बुआ जी ने आढे हाथों लिया “क्या मुन्ना की बहू तू पागल ही है क्या.. सुहाग की पूजा करके कोई विधवा से आशीष लेवे है..? सुहाग की पुजा के बाद सुहागिन का आशीष लिया जावे है ऐसी पढ़ाई किस काम की जो अच्छे बुरे का फरक ही भुला देवे.. चल आ मेरे पैर पड़ के आशीष ले और मुन्ना के पैर छूकर व्रत खोल अपना.” बुआ जी ने मुक्ता से कहा.

मगर मुक्ता अपनी जगह अटल थी . ऊपर कुछ आहट हुई मुक्ता को समझते देर ना लगी कि माँ जी ऊपर हैं. बुआ जी की बात अनसुनी कर सीढ़ियों की तरफ बढ़ी ही थी कि बुआ जी ने फिर टोकते हुए कहा “रुक जा री,” मगर मुक्ता ना रुकी.

आहट से माँ जी ओट में हो गई और बोली “बेटा कल पैर छूना मेरे आज बुआ जी को प्रणाम कर व्रत खोल ले अपना.”

मुक्ता का भी सब्र जाता रहा. बोली, “माँ आज तक आपसे आशीष लेकर ही व्रत खोला है अपना बरसों का नियम कैसे तोड़ दूँ.”

“तब की बात और थी अब और बात है..अब मैं विधवा हूँ एक विधवा क्या किसी को अखंड सौभाग्य का आशीष दे पाएगी.” माँ के स्वर में अपार दर्द था..

मुक्ता ने दौड़ कर माँ का हाथ थाम कहा “माँ जी कैसी बात कर रही हैं आप? मैं अपने पति की माँ से आशीष लेने आई हूँ..माँ अपनी संतान के लिए अपशगुनी कैसे हो सकती है.. माँ सिर्फ माँ होती हैं…माएँ विधवा नहीं होती..”

***

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