This Hindi poem highlights the worries of an adolescent age son who always tries to adopt the bad habits of His father .In this poem the poetess is focusing the Indian father as He is the only one who can make his children a successful one by giving his good habits to His son.
डरती हूँ मेरी आँखों का तारा …… पीने ना लग जाए कहीं ,
अपने अब्बा की ही भाँति …… जीने ना लग जाए कहीं ।
यौवन की उम्र से गुजरता …… उसका ये जीवनकाल चला अब ,
जिसमे तृष्णाएँ उमंगें लेतीं ……. ऐसा नशीला साल चला अब ,
जब भी वो बातें करता है …… जीने और मरने की ,
डरती हूँ मेरी आँखों का तारा …… पीने ना लग जाए कहीं ।
डरती हूँ मेरी आँखों का तारा …… किसी उलझन में ना पड़ जाए कहीं ,
अपने अब्बा की ही भाँति …… सट्टेबाज़ी में ना लग जाए कहीं ।
यौवन की उम्र से गुजरता …… उसका ये मोहमाया का जाल ,
जिसमे पैसा सुकून सा भरता ………. और देता उसे लालच का ख्याल ,
जब भी वो बातें करता है …… पैसे और फ़रारी की ,
डरती हूँ मेरी आँखों का तारा …… किसी उलझन में ना पड़ जाए कहीं ।
डरती हूँ मेरी आँखों का तारा ……प्रेम में ना पड़ जाए कहीं ,
अपने अब्बा की ही भाँति …… कामदेव से ना बच पाए कहीं ।
यौवन की उम्र से गुजरता …… उसका ये वासनायों का साल ,
जिसमे वासनाएँ जन्म लेतीं ……. पाने को मख़मली संसार ,
जब भी वो बातें करता है …… कमसिन यौवन और जवानी की ,
डरती हूँ मेरी आँखों का तारा …… प्रेम में ना पड़ जाए कहीं ।
डरती हूँ मैं अक्सर अपनी खिलती हुई ……नयी कोपलों के ख्यालों से ,
जिसमे माँ- बाप की परछाई साथ चलती है ……… उनके नए सवालों में ।
अक्सर मेरे अंश जब मुझसे ……ये सवाल उठाते हैं ,
कि क्यूँ रोकते हो हमें करने को ऐसा ……… जिसमे अब्बा कहीं समाए जाते हैं ,
तब डरती हूँ मैं ये सोच …… कि क्यूँ हमने कभी ऐसा वो काम किया ,
जिसके कारण आज हमें ……. अपने ही सवालों का ना समाधान मिला ।
डरती हूँ मेरी आँखों का तारा …… मुझसे ना छिन जाए कहीं ,
अपने अब्बा की ही भाँति …… लड़खड़ाते क़दमों का साथ ना पकड़ जाए कहीं ।
इसलिए “पुरुष” ही एक आदर्श ……अपनी संतान का कहलाता है ,
जिसको देखकर हर बच्चा ……अपने भविष्य की एक उज्जवल छवि पाता है ,
डरती हूँ ये सोच कि मेरी आँखों का तारा ……… सपने भी ना ले पाए कहीं ,
अपने अब्बा की धूमिल छवि को ……और धूमिल ना कर जाए कहीं ॥
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